अरुणा कपूर
विचार स्वातंत्र्य की बड़ी अहमियत है। सभी के अपने विचार और मान्यताएं होती हैं। किसी के विचार किसी के ऊपर थोपे नहीं जा सकते। अगर ऐसा होता है तो यह विचार स्वातंत्र्य को छीनने, दबाने या रोकने जैसा है। विचार सिर्फ मन में उभर कर रह जाते हैं और व्यक्त नहीं किए जाते, तो उनका महत्त्व उसी व्यक्ति तक सीमित रह जाता है। व्यक्त किए गए विचारों का महत्त्व यकीनन ज्यादा है, क्योंकि उनका प्रभाव संबंधित सभी व्यक्तियों और समाज पर भी पड़ता है। अगर कोई स्त्री या पुरुष अपने विचारों को स्पष्टतया व्यक्त करे और उसमें खुद को ढालते हुए कोई कार्य करना चाहे तो जाहिर है कि कार्य के परिणाम की जिम्मेदारी उसकी अपनी ही होती है।
इसीलिए अपने विचारों पर अमल करना और परिणाम जो भी, अच्छा या बुरा, आए उसके लिए तैयार रहना उस व्यक्ति के ही हिस्से में जाता है। यह जरूरी नहीं कि आपके संपर्क में आने वाले सभी लोग, आपके विचारों से सहमत हों। आपके विचार जान कर आपा खोने वाले, परिणाम से डराने वाले, जानबूझ कर आपका विरोध करने और मजाक उड़ाने वाले बहुत से लोग मिल जाएंगे। जब आप अपने विचारों पर अमल करने के लिए कदम बढ़ाते हैं तो आपके रास्ते में कई तरह की रुकावटें डालने वाले भी आपको मिल जाते हैं। ऐसे में मन दृढ़ बना कर आगे बढ़ना या अपने आप को रोकना आप पर निर्भर करता है।
पिता-पुत्र के भाई-भाई के और पति-पत्नी के विचार भी कई मामलों में भिन्न हो सकते हैं। ऐसे में, आपस में मन-मुटाव और झगड़े भी हो सकते हैं। पिता-पुत्र या भाई-भाई के भिन्न विचारों को लेकर होने वाले झगड़े या मन-मुटाव को हमारा समाज सामान्य रूप में स्वीकार कर लेता है, लेकिन पति-पत्नी के भिन्न विचारों को लेकर हुए झगड़े और मन-मुटाव को समाज टेढ़ी नजर से देखता है। अगर पत्नी अपने स्वतंत्र विचार व्यक्त करती और पति उसका विरोध करता है, तो पैदा होने वाली पारिवारिक समस्या के लिए जिम्मेदार पत्नी ही मानी जाती है।
दो दशक पहले मैंने स्वयं अपने पड़ोस में इसी मुद्दे को लेकर एक परिवार को टूटते देखा। पत्नी चाहती थी कि घर के खर्चों में बचत करके और कुछ लोन लेकर रहने के लिए फ्लैट खरीदा जाए, जबकि पति नई कार खरीदने, विदेश भ्रमण और ऐशो-आराम की अन्य चीजों पर पैसा खर्च करना चाहते थे। पत्नी के विचार से असहमत पति ने पत्नी को त्याग दिया। बाद में पत्नी और उसके माता-पिता ने उस पतिदेव से क्षमा याचना की, पत्नी ने किसी भी बात के लिए विरोध न करने की कसम खाई, तब जाकर उसे घर में वापस प्रवेश मिला।
देखा गया है कि आज से कुछ दशक पहले इसी कारण से विवाहित स्त्रियां अपने विचारों को व्यक्त करने से डरती थीं। पति और ससुराल वालों की हां में हां और ना में ना करना ही उनका घर में रहने का सबब बनता था। स्त्रियां गृहस्थी छिन्न-भिन्न होने के डर से अपने विचार व्यक्त करती नहीं थीं। परिवार के अन्य सदस्यों का साथ होना तो असंभव-सा था। उसके अपने-अपने अभिभावक और माता-पिता भी उसे चुप रहने की ही सलाह देते थे। उसे वोट भी उसी पार्टी और उम्मीदवार को देना पड़ता था; जिसे पति पसंद करता था। अपने स्वतंत्र विचारों को वह व्यक्त नहीं कर सकती थी।
समय ने करवट बदली! पाश्चात्य संस्कृति के समाज पर कुछ बुरे प्रभाव अवश्य पड़े, लेकिन एक अच्छा प्रभाव भी पड़ा। महिलाओं ने अपने आप को कमजोर और लाचार समझना छोड़ दिया! अपने बलबूते कार्य करने के लिए मन को मजबूत बना लिया और अपने स्वतंत्र विचार व्यक्त करना और उन पर अमल करना सीख लिया। जैसे जोत से जोत जलाई जाती है, वैसे ही एक स्त्री दूसरी स्त्री की प्रेरणा बनती गई। इससे समाज में भी जागृति आ गई!
शुरू शुरू में जरूर इसका सामाजिक विरोध हुआ, लेकिन कुछ पतियों ने ही अपनी पत्नियों का साथ देकर एक अनुकरणीय उदाहरण समाज के सामने रखा। क्या हुआ अगर पत्नी के विचार उनके विचारों से नहीं मिलते। इससे पारिवारिक शांति में कोई खलल नहीं पड़नी चाहिए, यह बात उनकी समझ में आ गई। विचार स्वातंत्र्य सभी के लिए जरूरी है। एक स्त्री के लिए भी विचार स्वातंत्र्य मायने रखता है। सभी के लिए उनके अपने विचारों का अलग महत्त्व होता है। इसलिए दूसरों को भी ध्यान से सुनना और उनके विचार जानना आवश्यक कार्य है। विचार स्वातंत्र्य हर मनुष्य का आपका अपना अधिकार है।