सुहानी सुबह कब होती है? जब आंख खुलने से पहले दिल और आंख को इत्मीनान हो कि सपना पूरा हो चुका है, हमदम जाग चुका है (जिनके हमदम हैं), अखबार आ गया है और बिस्तर के पास वाली मेज पर है चाय! ताजगी और जागने का चाय से जितना संबंध है, उससे ज्यादा नींद और सुलाने से है! दरअसल, सपने नींद में ही आते हैं और सपने जगाने का काम चाय बखूबी करती है। खीझ से भरा मूड हो तो चाय का प्याला हाथ में आते ही सपने करवट लेने लगते हैं, सजने लगते हैं, उनके पूरे होने की योजनाएं भी बनने लगती हैं।

चाय का ग्लास हाथ में आते ही गरम हो जाती हैं अंगुलियां और घूंट अंदर जाते ही दिल भी गर्म हो जाता है। दिल गर्म होता है तो पिघल-पिघल कर बहती है गरमाहट शरीर और मन में और उबाल मार कर दिल के कोने-कोने से बाहर आती हैं बातें। दिल की बातें फिर भी दबी होती हैं, चाय के बिना तो होंठ पर रखी कहानी तक बाहर आने से मना कर दे! गुनगुनी चाय, गुनगुना साथ, गुनगुनी बातें और मुस्कान! दिलों में जितनी गरमाहट, उतने बढ़ते प्याले… चाहे तो गिन लीजिएगा। गहरा होता चाय का रंग और गहराती दोस्ती।

पहले कप के साथ चाय से पहली मुलाकात दादी के साथ। चाय के दो समय होते हैं- सुबह सात बजे और शाम चार बजे। लेकिन हिदायत, कि बच्चे, खासकर लड़कियों को चाय नहीं पीनी चाहिए, रंग काला हो जाता है! रंग की चिंता नहीं। वह पहले से ही ज्यादा पत्ती वाली गाढ़े दूध की चाय जैसा है। दूसरा कप मां-पापा के साथ। वे दीवारी अखबार निकाला करते थे, जिन्हें चाय की थड़ियों यानी दुकानों पर चिपकाने भाई और मैं सुबह-सुबह जाते थे, फिर मां-पापा के साथ वहां बात करने। हमारे घर में रविवार को इतनी चाय बनती थी कि लगता था कि हम चाय वाले ही हैं! बाकायदा एक बंदे को चाय की जिम्मेदारी सौंप दी जाती थी। हमेशा मुझे।

किसे याद नहीं है यात्राओं के दौरान ट्रेन में चाय। ऊपर की बर्थ पर किताब मैं और चाय। आवाज देकर रोकना और ट्रेन के हिलते-हिलते संभालते हुए चाय। फिर स्कूल आॅफ फाइन आर्ट्स में चाय! जितनी गरमी चाय में, उतनी गरमी रंगों में। प्रैक्टिकल यानी मूर्ति और चित्र बनाने के पांच घंटे के दौरान लगातार एक कप जरूर होता था चाय का। मानो ईजल पर रखी चाय की भाप से ही चित्र बनने हों। सपने ऐसे ही चाय की भाप में पिघल कर उबलते हैं और मुंह से छिटक कर बाहर आते हैं। नाटक मंडली के साथ जहां चाय होती थी, उस दुकान के सामने बड़ा-सा बरगद का पेड़ था, जिससे बचते हुए रोशनी की कुछ एक किरणें अंदर आ जाती थीं। दुकान में अंधेरे से लड़ने को था चालीस वाट का बल्ब… और थे हम।

इस दौरान हमने दो नए शब्द भी ईजाद किए- ‘च्यास’ यानी जैसे प्यास पानी की, वैसे ‘च्यास’ चाय की। दूसरा, ‘चायची’ यानी अफीमची की तरह चायची! फिर छठा कप तब, जब मैं जयपुर से दिल्ली निकली तो दिल के साथ चाय भी यहीं चली आई। दिल्ली में एकदम अलग मंजर है। चाय की ढेरों थड़ियां हैं, अड्डे हैं। आप चाहे एक लाख रुपए महीना कमाएं या पांच हजार, एक साथ चाय पीजिए। एक साथ कहानी, फिल्म, फैक्ट्री, कॉल सेंटर, घर, रिक्शे की बातें होंगी। सबको अपने यहां के भी लोग जरूर मिलेंगे। सौहार्द है पक्का।

एक जापानी घुमक्कड़ से मिली थी। उनके गले में कैमरा था और पीठ पर बैग, जिसमें किताबें थीं और उनकी पसंद के ‘टी बैग’। मुझे उन्होंने एक किताब और कुछ ‘टी बैग’ दिए। किताब के दौरान साथ में चाय! मैंने ढेर सारा वक्त घूमते हुए बिताया है। कुछ ऐसी जगह गई जहां बिजली या फोन नहीं थे, पर दो चीजें हर जगह थीं- एक चाय की थड़ियां, दूसरा ‘पारले जी’। मुझे लगता है, अगर आप सचमुच शहर की नब्ज जानना चाहते हैं तो वहां की थड़ियों पर जाएं। न म्यूजियम, न पुराने पड़ते महल, न मंदिर, न बाजार। आपको शहर के दिल के बारे में बता सकते हैं चाय की थड़ी। चाय रंग, महक, स्वाद, अंदाज, प्याला बदलती है और अनजान को जान-पहचान में बदलती है। जान-पहचान को दोस्ती में, दोस्ती को प्यार में…! चाय पहली बार में अक्सर जुबान जला देती है जो हमेशा याद रहता है पहले चुंबन की तरह!

एक बार घर भरा था दोस्तों से, रसोई भी लबालब थी बातों से। बड़ा भगोना भरा था चाय से, कप चाय से। और डालते वक्त चाय कप की जगह मेरे पैरों पर गिर पड़ी! तब तीन दिन तक चाय पीना क्या, चाय का नाम सुन कर भी मैं डर कर वापस सो जाती थी!
बहरहाल, चांदी-सी केतली से ढलती है… प्यार की गरमाहट-सी चाय। चाय की ढेरों थड़ियां बनी हैं ताजमहल, जहां प्रेमी अपने प्रेम के साथ या उसे याद करते भरते हैं घूंट चाय की, एक के बाद एक स्पेशल चाय। ये ताजमहल उस ताजमहल से जरा-भी छोटे नहीं!