एक दिन कक्षा में पढ़ाने के दौरान बच्चों को ‘दायां’ और ‘बायां’ के बारे में समझा रहा था। लेकिन मेरे बहुत प्रयास के बावजूद बच्चे समझ नहीं पा रहे थे। शायद बच्चों को लग रहा था कि यह कोई नई चीज है और इसको रटना पड़ेगा, क्योंकि लगातार कई प्रयास के बाद भी मैं बच्चों को समझाने में विफल रहा। आखिर में मैंने विद्यालय में मौजूद शिक्षक से इस मुद्दे पर बात की तो उन्होंने मुझे बताया कि स्थानीय भाषा में ‘दायां-बायां’ को ‘जीमला-दावला’ कहते है। उसके बाद मैंने बच्चों को ‘जीमला-दावला’ शब्द का प्रयोग कर समझाया तो सभी बच्चे आसानी से समझ गए। शायद अब उन्हें रटने की जरूरत नहीं थी, क्योंकि ‘जीमला-दावला’ उनके परिवेश में प्रयोग होने वाले शब्द थे। यह कक्षा के असंख्य उदाहरणों में से एक है जो विद्यालय में परिवेशीय भाषा के महत्त्व पर बल देता है।
दुनिया में मनुष्य को सभी प्राणियों में सर्वोच्च माना गया है, जिसकी एक अहम वजह भाषा है। मनुष्य ने भाषाई विकास के साथ अपनी संस्कृति विकसित की है। यही एक बड़ा फर्क है जो मनुष्य को अन्य प्राणियों की जमात से अलग करता है। इसलिए मनुष्य के सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में भाषा का अहम योगदान रहता है। सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में बच्चा सबसे पहले अपने परिवेश की चीजों से रूबरू होता है। उसके बाद धीरे-धीरे अवलोकन और अनुभवों से वह सीखता है। इसलिए बच्चे के सीखने में उसकी परिवेशीय भाषा का अहम योगदान रहता है, क्योंकि घर-परिवार में वह इसी भाषा के माध्यम से ही बातचीत करता है।
दूसरे शब्दों में, कोई भी मनुष्य पहले अपने परिवेश की भाषा के आधार पर सीखता है, उसके बाद दूसरी भाषा के संपर्क में आता है।
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 भी बच्चे के परिवेशीय ज्ञान को महत्त्व देते हुए विद्यालयी शिक्षण में परिवेशीय भाषा के प्रयोग पर बल देता है। इसके अनुसार, ‘बच्चों को इस तरह सक्षम बनाया जाना चाहिए कि वे अपना स्वर ढूंढ़ सकें, अपनी उत्सुकता विकसित करें, स्वयं सीखें, सवाल पूछें, चीजों की जांच-परख करें और अपने अनुभवों को विद्यालयी जानकारी के साथ जोड़ सकें।’ और यह कब संभव है? जब बच्चे के पास अपनी भाषा हो। अगर उसके पास अपनी भाषा नहीं है, यानी विद्यालय ऐसी भाषा को शिक्षण का माध्यम बनाता है जो बच्चे के परिवेश में मौजूद नहीं है तो बच्चा अपना स्वर कैसे ढ़ूंढ़ पाएगा, कैसे अपनी उत्सुकता विकसित करेगा, कैसे सवाल कैसे पूछेगा और कैसे चिंतन-मनन कर पाएगा?
आमतौर पर बच्चा जब पहली बार विद्यालय आता है तो उसको कोरा कागज समझा जाता है। लेकिन शिक्षाविदों के अनुसार, जब बच्चा पहली बार विद्यालय में आता है तो वह केवल कोरा कागज नहीं होता है, बल्कि उसके पास अपने शब्दों का एक भंडार होता है, जिसका वह आवश्यकता अनुसार प्रयोग करता है। यह शब्द भंडार वह अपने परिवेश की भाषा से ही सीख कर आता है। यह माना जाता है कि बच्चे उस वातावरण में सबसे अधिक सीखते हैं, जहां उन्हें लगे कि वे महत्त्वपूर्ण समझे जा रहे हैं। बच्चे को महत्त्वपूर्ण समझे जाने की शुरुआत उसकी भाषा और अनुभवों को महत्त्वपूर्ण समझे जाने से होती है। उसकी भाषा से परहेज करने का मतलब है, उसके अनुभवों को नकारना, क्योंकि बच्चा अपने अनुभवों को उस भाषा में सबसे अच्छी तरह से व्यक्त कर पाता है जो उसने अपने परिवेश से सीखी है। इसलिए यह महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि विद्यालय में प्राथमिक स्तर पर शिक्षण में परिवेशीय भाषा को शामिल किया जाए।
लेकिन गौरतलब है कि भारत जैसे बहुभाषा वाले देश में, जहां अलग-अलग क्षेत्रों में भाषा का स्वरूप भी भिन्न है, वहां बच्चे की परिवेशीय भाषा को शिक्षण में शामिल करना बड़ी चुनौती है। लेकिन दूसरी ओर बच्चे के लिए सीखने में परिवेशीय भाषा बहुत मददगार होती है, क्योंकि बच्चा सुनने और बोलने की भाषायी दक्षता अपने परिवेश से सीख कर आता है और परिवेशीय भाषा किताबी ज्ञान को बच्चे के वास्तविक जीवन से जोड़ने में भी मददगार होती है। अगर विद्यालय में वह भाषा नहीं है जो बच्चे के परिवेश में बोली जाती है तो उसके विद्यालयी जीवन और बाहरी जीवन के बीच रिक्तता बनी रहती है।
ऐसी जगहों पर शिक्षक की भूमिका महत्त्वपूर्ण हो जाती है कि वह किताबी भाषा से बच्चों का परिचय इस तरह करवाए कि बच्चे सहज रूप से भाषा को अपने परिवेश से जोड़ कर समझ पाएं। वह अपने शिक्षण में ज्यादा से ज्यादा परिवेशीय भाषा को महत्त्व दे और धीरे-धीरे बच्चों को परिवेशीय भाषा से दूसरी भाषा के ओर ले जाए, ताकि प्रारंभिक शिक्षा पूरी होने से पहले बच्चे शिक्षण की अन्य भाषाओं से परिचित हो जाएं और आगे की शिक्षा के लिए वे अपनी पसंद की भाषा में, अपनी पसंद की शिक्षा का चयन कर सकें।