बीनू
पिताजी की मामी को हम दादी कह कर बुलाते थे। कुछ समय पहले उनका निधन हो गया। महीने भर की बीमारी के दौरान उनके बेटों से ज्यादा बेटियों ने उनकी खूब सेवा की। अंतिम समय में बिस्तर पर पड़े रहने की स्थिति में उन्हें साफ-सुथरा रखना, कपड़े बदलवाना, समय पर दवा देना जैसे सारे काम उनकी बेटियों ने ही किए। उस वक्त जो बेटियां उनके पास थीं, उनमें से एक कुंवारी है और एक का विवाह हुआ था, लेकिन उसके पति की मौत हो चुकी है। उन दोनों ने अपनी मां की पूरी जिम्मेदारी संभाल रखी थी। लेकिन आखिरकार वे नहीं बचीं। खैर, दादी के अंतिम संस्कार की तैयारी की जा रही थी। शव को अंतिम स्नान कराने, कपड़े पहनाने और शृंगार कराने की बात हो रही थी। सवाल उठा कि कौन पूरे करेगा ये संस्कार! कौन-से रीति-रिवाज के हिसाब से काम संपन्न होंगे! महिलाओं के समूह से आवाज आई कि कुंवारी लड़कियां और विधवा महिलाएं अंतिम संस्कार नहीं कर सकतीं। हम लोग बनारस के हैं, इसलिए वहीं के रिवाज के हिसाब से सारे संस्कार पूरे होंगे!
जब तक दादी जिंदा, लेकिन बीमार थीं, तब तक बिस्तर पर पड़े रहने के दौरान महीने से ज्यादा वक्त से उनकी बेटियां ही सारी सेवा कर रही थीं। लेकिन उस दिन उनकी मृत्यु के बाद बेटियों को अपनी मां के अंतिम संस्कार में हिस्सा तक लेने से वंचित कर दिया गया। यह धर्म का विधान है, यही रिवाज है! वहीं कुछ महिलाएं ऐसी बातें भी कर रही थीं कि दादी कितनी किस्मत वाली हैं… सुहागन ही मरीं… सबके ऐसे भाग्य कहां…! कोई-कोई औरत ही सुहागन मरती है! ऐसी बातें कहने वाली वहां मौजूद आमतौर पर कुछ विधवा महिलाएं थीं। उनकी बातों और उनके चेहरों से लगा कि उन्हें इस बात पर बहुत दुख था कि वे अपने पति से पहले नहीं मर सकीं!
कहां से आते हैं ये विधान? कौन बनाता है इन्हें? मृत्यु के बाद कितने संस्कार होते हैं? दादी की कुंवारी और विधवा बेटियां इन्हीं सवालों में उलझी बहुत लाचार दिख रही थीं। लेकिन इसमें कुछ भी सवाल उठाने लायक नहीं मानने वाली और चुपचाप उन पर अमल करने वाली विधवा या दूसरी महिलाएं किन वजहों से ऐसा सोचती हैं!
वहीं दादी की बहू भी थीं, जिनके चेहरे पर मालकिन जैसा भाव आता दिख रहा था। एक सवाल उठा कि दादी के कान और नाक में सोने के गहने थे, उनका क्या होगा! बेटियों का कहना था कि सब मां के साथ जाने देना चाहिए, अंतिम संस्कार में। उसी शहर में रहने वाली बहू की बड़ी बहन भी आ गई थीं। उनसे बहू ने कहा कि सासू मां के कान-नाक से धागा बांध कर गहने निकाल लेती हूं… सोने के हैं सब! ऐसा कहते हुए उनके चेहरे पर थोड़ी हंसी भी आ गई। उनकी बड़ी बहन ने उन्हें आंख दिखा कर हलके से डांटा और इशारे से चुप रहने को कहा। बहू को अहसास हुआ कि ओह, यह मैंने क्या किया! पता नहीं किस-किसने मुझे हंसते हुए देख लिया होगा! वे तुरंत शांत हो गर्इं।
इस बीच वहां बात होने लगी कि गरुड़ कथा का आयोजन कराना होगा। किसे-किसे सुनने के लिए बुलाना है… कितने दिन तक क्या करना है… तेरहवीं कैसे करनी है…! सिर्फ संस्कार भर नहीं, उन पर खर्च कितना आएगा! दो बेटे हैं। छोटे बेटे की आमदनी इतनी नहीं है कि उससे ज्यादा पैसा निकालने को कहा जा सके। बड़ा बेटा और बहू बजट पर सोच-विचार कर रहे थे। पिता वृद्ध, बीमार और कुछ बेबस-से थे। अभी कुछ महीने पहले चौकी से उतरते हुए रात में गिर पड़े थे। तब से लाठी लेकर चल रहे हैं। टीबी की बीमारी से पहले से है। खांसी रुक नहीं रही थी। उन्हें ऊपर वाले कमरे में रखा गया था। वे एक तरह से बंद ही हैं। उन्हें नीचे घर और आंगन में चल रही गतिविधियों के बारे में कुछ नहीं मालूम था। मगर शाम होते-होते वे सब कुछ से वाकिफ हो गए। अगर पति जिंदा है तो अंतिम संस्कार आखिर उसके बिना कैसे संभव है!
दादी की विधवा बेटी अपने एक बेटे के साथ मायके में ही रहती हैं। दूसरा बेटा अपनी दादी के साथ रहता है। मां की आखिरी सांस तक सेवा करने वाली विधवा बेटी विधान के मुताबिक अपने हाथों से कफन नहीं डाल सकती थी। इसलिए उसने अपने बेटे को बुलवाया, ताकि उसके हाथों से कफन अपनी मां की मृत देह पर डलवा सके। विवाहित महिलाओं ने दादी की मृत देह को नहलाया, कपड़े पहनाए। फिर उन्हें बांस की टिकटी पर रखा गया। इसके बाद दादा जी को नीचे लाया गया, आखिरी बार दादी की मांग में सिंदूर भरने के लिए! दादी सुहागन मरी थीं। वे बड़ी ‘भाग्यवान’ थीं! उनकी विधवा बेटी थोड़ी दूर पर खड़ी सब कुछ चुपचाप देख रही थी…!
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