प्रेमपाल शर्मा

दर्द है कि हर रोज रिसने के बावजूद कम नहीं हो रहा। दफ्तर खुलते ही दिल्ली स्थित केंद्र के सरकारी कर्मचारी आह भर कर पुराने दिनों को याद करते हैं, कहां वह कभी भी आओ-जाओ और कहां यह दफ्तर में नौ से पहले पहुंचना! वरना छुट्टी कटेगी और तनख्वाह भी! पुराने बाबू बताते हैं कि ऐसा समय पालन तो केंद्र सरकार के कार्यालयों में कभी नहीं देखा गया! जहां बायोमेट्रिक मशीनें लग गई हैं, पनचानवे फीसद कर्मचारी समय पर दफ्तर पहुंच रहे हैं। उन्हें मेट्रो स्टेशन से दफ्तर की सीढ़ियों पर भागते और हांफते देखा जा सकता है। अब न बच्चों के स्कूल का बहाना, न पड़ोसी को अस्पताल में जाकर देखने का नाटक। जो सरकारी कर्मचारी सुबह नौ बजे के दफ्तर में दस बजे घर के आसपास अपने कुत्तों को घुमा रहे होते थे, वे अब रास्ते पर आ गए हैं। बड़े साहबों की बड़ी-बड़ी गाड़ियां साफ करने वाले सफाई कर्मचारी तक तनाव में आ गए हैं। कहते हैं कि अच्छे दिन क्या आए, हर साहब कहता है कि सुबह आठ बजे तक गाड़ी साफ हो जानी चाहिए। लेकिन आंखों में शरारत दिखाता हुआ भी कह देता है कि अब पता चलेगा जब समय पर दफ्तर पहुंचना पड़ेगा! ‘एक देश लेकिन कानून अलग-अलग। आपको तनख्वाह ज्यादा मिले और समय पर भी नहीं पहुंचना। यह कहां का न्याय है।’

हर व्यवस्था के कुछ नियम-कानून होते हैं, जिसमें समय की पाबंदी भी एक महत्त्वपूर्ण बात है। जब सरकार तनख्वाह पूरी देती है, आपकी सुख-सुविधाओं का पूरा ध्यान रखती है, आपके लिए अस्पताल, स्कूल हैं, घूमने की आजादी है और छठे वेतन आयोग के बाद तो यह भी नहीं कह सकते कि आपका शोषण हो रहा है तो फिर लापरवाही, कामचोरी खून में कैसे आई! क्या सरकारी कर्मचारी ने कभी सोचा कि उसी के घर में जो बैंक में नौकरी कर रहा है, वह समय पर पहुंचता है और कई घंटे ज्यादा काम करता है, जो प्राइवेट नौकरी में हैं, वह देसी फैक्ट्री हो या विदेशी कंपनी, उसे कभी देर से दफ्तर पहुंचते नहीं देखा। इन सबको तनख्वाह भी केंद्र सरकार के कर्मचारी से कम ही मिलती है। तो अगर अब दफ्तर में समय पर पहुंचना पड़ रहा है तो यह हाय-हाय क्यों?

क्या इस देश की व्यवस्था के डूबने का एकमात्र कारण केंद्र, राज्य सरकार के कर्मचारियों में एक लापरवाही का भाव जिम्मेदार नहीं है? सरकारी स्कूल क्यों डूबे? आप पाएंगे कि पचास फीसद शिक्षक या तो गायब हैं या किसी बहाने छुट्टी पर हैं। विश्वविद्यालयों का तो कहना ही क्या! विश्वविद्यालय के प्रोफेसर कहते हैं कि हम तो चौबीसों घंटे ड्यूटी पर होते हैं, क्योंकि हम उन बातों को सोचते और पढ़ते रहते हैं जो हमें विश्वविद्यालय में पढ़ानी हैं। क्या खूबसूरत दलील है! दशकों से ऐसा चल रहा है। नतीजा? पिछले कई वर्षों से हमारे ज्यादातर शिक्षण संस्थान गुणवत्ता के नाम पर और नीचे ही गिर रहे हैं।

लोकतंत्र का तकाजा है कि सरकारी संस्थाएं लोक की उम्मीदों पर खरी उतरें। कल्पना कीजिए कि आप अपने किसी परिचित को लेकर अस्पताल पहुंचते हैं और अगर डॉक्टर और नर्स न हो, अस्पताल में गंदगी फैली हो तो क्या आप बर्दाश्त कर पाएंगे? आप जो टैक्स सरकार को देते हैं, तुरंत उसका हिसाब मागेंगे। आप बैंक में जाएं और ताला बंद मिले तो क्या माथा नहीं पीट लेंगे? राज्य का पहला काम जनता के प्रति जवाबदेह होना है और ऐसे कदमों से सरकारी कर्मचारी की जवाबदेही बढ़ेगी। आज अगर केंद्र सरकार में ऐसा हो रहा है तो निश्चित रूप से कल मेरठ, आगरा, पटना, इलाहाबाद की सभी संस्थाएं, वे चाहे अस्पताल हों या जिलाधीश का कार्यालय या कोतवाली, पटवारी, बिजली- सभी पर इसका असर होगा। देशभक्ति सिर्फ सीमाओं पर लड़ने या ललकारने, हुंकारने का नाम नहीं है। पूरी निष्ठा से अपना काम करना भी देशभक्ति और समय की जरूरत है।

नई व्यवस्था में अगर कोई कमी है तो यह कि समय पर कैसे पहुंचें। दिल्ली में केंद्रीय सचिवालय मेट्रो स्टेशन पर शाम को एक-एक घंटे तक मेट्रो का इंतजार करना पड़ता है, क्योंकि ऐसा कभी सोचा ही नहीं गया कि एक साथ हजारों लोग दफ्तर छोड़ेंगे। गनीमत है कि दिल्ली मेट्रो की वजह से यह समय-पालन संभव हो पाया, वरना त्राहि-त्राहि मच जाती। दफ्तरों में काम करने वाली महिलाओं पर दोहरी मार पड़ी है। हमारी सामाजिक व्यवस्था में उन्हें घर पर भी सब कुछ देखना पड़ रहा है और दफ्तर में मिली पुरानी रियायत भी गायब। अब तो वे खुद कह रही हैं कि ‘चाइल्ड केयर लीव’ हमें भले न दो, लेकिन आने-जाने के लिए या तो सरकार ऐसी व्यवस्था करे कि हम समय पर पहुंच पाएं या हमें कुछ छूट मिलनी चाहिए। लेकिन सरकारी कर्मचारी के दुख का अंत नजर नहीं आ रहा। इस हफ्ते सेवानिवृत्ति की उम्र साठ से अट्ठावन की खबर ने उन्हें और मायूस कर दिया है। कहां तो वे बासठ की उम्र के सपने देख रहे थे और कहां वक्त से पहले जाना पड़ सकता है! हालांकि नए समय के पालन को देखते हुए पहली बार सरकारी कर्मचारी स्वैच्छिक अवकाश, उर्फ वीआर के लिए सोच रहे हैं।

 

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