हाल ही में राजस्थान सरकार द्वारा मृत्युभोज पर पूरी तरह प्रतिबंध लगाने का निर्णय बरबस ही मुझे बचपन की ओर खींच ले गया। बात तब की है जब मैं पांचवी कक्षा में थी। गरमी की छुट्टियों में गांव जाना तय ही रहता था। पर उस बार गांव पहुंचने के साथ आस-पड़ोस के साथी-सहेलियों का वह जमावड़ा नहीं मिला जो हर बार मिलता था। दादी मां ने बताया सब किसी के ‘ब्रह्मभोज’ में गए थे।

बात तो समझ नहीं आई, पर हम लोग किसी भोज में नहीं गए, यह सोच कर मेरा मन जरूर दुखी हुआ था। अगले दिन जब सब दोस्त मिली तो पता चला किसी की मृत्यु हुई थी और वे सब उसी भोज में गई थीं। दोस्तों ने बताया कि खाने में कई तरह के पकवान थे। बालमन खाने में ही खुश था, लेकिन न जाने क्यों, मेरा मन तब भी पीड़ा से भर गया था कि घर में किसी की मौत होने पर इतने सारे व्यंजन कैसे बन सकते हैं और लोगों को बुला कर खिलाया कैसे जा सकता है!

बात आई-गई रह गई। पर अगली बार जब दादी हमारे पास आई तो बताया कि जिनकी मृत्यु हुई थी, उनके भाई ने गांव के ही किसी दबंग से मृत्यु-भोज और दान-दक्षिणा के लिए कर्ज लिया था। कर्ज के किस्त की शुरुआत भी न कर पाने से कर्जदार को रही-सही जमीन बेचनी पड़ी थी।

पूरा परिवार रोजी-रोटी की तलाश में शहर चला आया था। मेरे पिताजी से भी मदद की उम्मीद दादी मां ने की, अगर उन लोगों को कोई काम दिला सके तो! यानी एक अच्छा-भला परिवार, जो भले दौलत में नहीं खेलता था, पर आवश्यक और मूलभूत जरूरतों को पूरा करने में सक्षम था, एक कुप्रथा को निभाने की वजह से दर-दर की ठोकरें खाने को विवश हो गया था।

हमारा देश परंपराओं का देश है। वक्त के साथ जो परंपराएं दुरुस्त नहीं बैठ पातीं, हम उनमें या तो बदलाव कर लेते हैं या उन्हें छोड़ देते हैं। कई बार समय उनका स्वरूप भी बदल जाता है और अगर विकृति आ गई तो भी छोड़ना ही श्रेयस्कर है। परंपराओं के नाम पर कई कुप्रथाएं समाप्त भी हुई हैं। अब की बारी मृत्यु-भोज की हो, तो बेहतर होगा।

यों समय-समय पर समाज के विभिन्न वर्गों द्वारा मृत्यु-भोज की परंपरा को समाप्त करने की मांग की गई, लेकिन अंधविश्वासों की वजह से सामाजिक बहुमत के दबाव की वजह से इस ओर कोई ठोस पहलकदमी नहीं हुई। मगर अब मृत्यु-भोज पर रोक लगाना एक स्वागतयोग्य कदम है और अन्य राज्यों को भी इसका अनुसरण करना चाहिए।
दरअसल, मृत्यु के बाद परिजनों द्वारा समाज के लोगों को खाना खिलाना और दान-दक्षिणा देने की प्रथा आम है। यह प्रथा कष्टकारी नहीं होती, अगर आर्थिक रूप से कमजोर लोगों पर इसका अतिरिक्त दबाव नहीं पड़ता। मगर इस परंपरा को निभाने के लिए कई लोग उधार के बोझ तले दब जाते हैं।

कई बार अकाल मौत की वजह से अपनों को खोने के दुख के साथ-साथ ऐसे मृत्यु-भोज का आयोजन आर्थिक दबाव के साथ भावनात्मक और मानसिक आघात भी पहुंचाता है। हालांकि इसकी शुरुआत के पीछे के मुख्य कारणों को ठीक से समझा जाता तो शायद यह आज एक कुरीति बन कर नहीं रह जाता। मृत्यु के बाद शोकाकुल परिवार से मिलने-जुलने की रिवायत से मृतक के परिवार में सुरक्षा और आश्वासन की भावना भी जगती थी और वे अपनी पीड़ा से उबरने में सहज होते थे।

रिश्तेदार-मित्र आदि कच्चे सामग्री जैसे फल, कंद-मूल आदि लेकर आते थे और साथ मिल कर वही खाते थे, जिससे परिवार को अकेलेपन का अहसास नहीं हो। लेकिन इस मिलनसार माहौल को हमने कर्मकांड की शक्ल दे दी और दिखावे को बढ़ावा देकर एक सकारात्मक रीत को नकारात्मक परंपरा में बदल दिया।

मूल रूप से इस व्यवस्था में जीवन की सीख थी कि मृत्यु से उपजे दुख में भी घर-परिवार के लिए जीवन है और उसे मिल कर जीना ही अब जीवन का लक्ष्य हो। लेकिन आज हालत यह है कि किसी गरीब को भी अपने यहां स्वाभाविक या अस्वाभाविक-अकाल मौत के बाद भी मृत्यु-भोज का आयोजन करना पड़ता है और उसमें भी सैकड़ों की तादाद में लोग खाने चले आते हैं। अब तो ऐसे आयोजनों में सादे भोजन की जगह तरह-तरह के पकवानों ने ले ली है, जो आपमें ही भावनात्मक ठेस पहुंचाता है।

गांवों में अक्सर ऐसे आम दृश्य देखने को मिलते हैं। यह कितना उचित है, इसका निर्णय भी हमलोग नहीं ले पाते हैं। जो आर्थिक दृष्टिकोण से सक्षम हैं, अगर वे बड़े मृत्यु-भोज का आयोजन नहीं करें, तो यह समाज लांछन भी लगा देता है कि मृतक से उन्हें कोई प्रेम ही नहीं था या उनकी सद्गति परिवार के लोग नहीं चाहते। आखिर आपस में विश्वास पैदा करने वाली एक रीत को अंधविश्वास के भय में किसने तब्दील कर दिया!

अगर समाज में ऐसी व्यवस्थाएं अपने मूल स्वरूप में रहें, तभी शोभनीय हैं। आडंबर और दबाब के मिलावट के साथ इस तरह की परंपरा असहनीय हो जाती हैं। ऐसे में इनका समाप्त होना ही स्वस्थ समाज के लिए जरूरी है।