हाल के दिनों में बहुत कोशिश की कि सामने मौजूद परिदृश्य से इतर कुछ सोचने की कोशिश करूं। लेकिन कभी मौजूदा दौर के संदर्भ से इतर कोई और बात आती भी तो वह फिर उसी में गुम हो जाती। सवाल है कि साईकिल, रिक्शा, ट्रक, आटो, ट्रैक्टर या पैदल सैकड़ों-हजारों किलोमीटर जाते हुए, बैल की जगह खुद को जोत कर परिवार के साथ अपने गांवों की ओर जाते, भूखे-प्यासे, रेल की पटरियों पर या दुर्घटनाओं में मरते प्रवासी श्रमिकों की खबरें, इनकी तस्वीरों क्या सिर्फ देखने और सुनने के लिए हैं। इन्हें देख कर क्या हमारे भीतर कुछ होता है?
शायद नहीं! भीतर में ‘मर गया है’ कुछ, जो इंसानी था। ये श्रमिक हमारी अर्थव्यवस्था और सामाजिक समीकरण को साधे रखती आधी से ज्यादा आबादी है जो हमारे उद्योगों की रीढ़ है। उद्योग बड़े हों या छोटे, स्वदेशी हों या न हों किसी ने किसी रूप में ये दुकानों, दफ्तरों, कंपनियों में होते ही है। अब इनका अपने गांवों में इस तरह लौटना कई सवाल खड़े करता है। इनके बिना उद्योगों का क्या होगा ? दूसरी तरफ इनका घर लौटना क्या ‘सकारात्मक स्वदेश’ की वापसी भी हो सकती है? क्या वहां वे सहजता से अपना गुजारा करने लायक कुछ कर सकेंगे?
यों सन 1960 के आसपास गावों से शहरों की ओर विस्थापन शुरू हो गया था। उनके पीछे कारण किसानों की कृषि में बढ़ती कठिनाइयां रही। दिनोंदिन बढ़ता कर्ज और जमीदारों और महाजनों का अत्याचार भी था। साथ ही गांधी ने स्वराज का जो सपना बुना था, उसका साकार न होना था। इतिहास में जाएं तो भारत में आम जीवन में घुले-मिले लघु और कुटीर उद्योग जीवन निर्वाह के साधन थे। लेकिन बाद में अपने घरेलू उत्पादों की अपेक्षा विदेशों से आयात उत्पादों से बाजार सज गए।
गांवों से शहरों की ओर पलायन बढ़ता गया। शहरों में झुग्गी-झोपड़ियों में आकर लोग ठहरते और काम-धंधा ढूंढ़ कर करने लगे। मुंबई में ह्यधारावीह्ण के बारे में हम जानते हैं। दिल्ली में यमुना पार झुग्गी-झोपड़ियों का एक शहर बन गया। इसके अलावा हर पॉश कालोनी से थोड़ी दूरी पर कहीं न कहीं ये लोग रहने लगे। घरेलू सहायता से लेकर दफ्तरों में छोटे-मोटे काम करने वाले, दिहाड़ी कमाने वाले, निर्माण कार्यों और उद्योगों से जुड़े मजदूर..!
ये हमारी शहरी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था का आधार बनते गए। लेकिन इनको जो आर्थिक सुविधाएं और अधिकार व्यवस्था से मिलने चाहिए थे, नहीं मिले। जबकि इनका योगदान कल-पुर्जा उद्योगों से लेकिन विनिर्माण में और छोटे-बड़े सभी उद्योगों में बहुत बड़ा है। देश को अब समझ आया है कि ये प्रवासी श्रमिक इस समय सत्तर करोड़ के आसपास है, जो छोटे-मोटे कारोबार, फल-सब्जी वाले, रेहड़ी-पटरी वाले, मैकेनिक, दर्जी, ब्यूटी-पार्लर के क्षेत्र में कार्यरत हैं।
अब वे अपने गांव लौट रहे हैं। गांवों में सड़के हैं, बिजली है, गैस है, ई-कॉमर्स और ब्राडब्रैंड जैसी सुविधाएं उपलब्ध हैं। ये गांवों में लौट कर फिर से एक नया जीवन का सपना लेकर लौट रहे हैं। कभी शहरों में वापस न आने का और वहीं से काम करने का। लेकिन क्या उनका यह सपना पूरा होगा? आज भी गांवों की वास्तविक तस्वीर कई बार डरा देती है।
बहरहाल, काश विपदा में एक अवसर देखा जाता और गांधी के सपने को पूरा करने की कोशिश की जाती। लौटे हुए प्रवासी श्रमिक अपने-अपने क्षेत्र में किए गए काम को बखूबी कर सकते हैं। दूसरी ओर छोटे और लघु उद्योगों को प्रोत्साहन मिलेगा। पर अब क्रम को उलटना होगा। पहले ये गांवों से शहर आते थे, अब शहरों से इनके पास जाना होगा। इनके उत्पाद को सही तरीके से बाजार तक ले जाना होगा। साथ ही जिन उद्योगों में हम सक्षम हैं, उनका आयात भी रोकना होगा। चीनी समान ने किस तरह से हमारे लघु, कुटीर उद्योगों को नष्ट किया है, इसका अनुमान लगाइए कि दिवाली के लिए गणेश, लक्ष्मी इत्यादि की मूर्तियां हमारे बाजार में पटी पड़ी होती हैं। सस्ती होती हैं, इसलिए लोग इन्हें खरीदते हैं। दीए हो या बिजली का समान या सजावटी लाइटें।
अब तक अपने यहां लघु और कुटीर उद्योगों को बढ़ावा नहीं देने और विदेशों पर निर्भरता ने देश की हालत को सुधरने नहीं दिया। जबकि यह क्षेत्र न केवल स्थानीय लोगों और मजदूरों की रोजी-रोटी का नियमित साधन बन सकता है, बल्कि इससे देश की आत्मनिर्भरता की राह खुलेगी। आत्मनिर्भरता केवल नारा देने से नहीं आती।
इसके लिए स्वदेशी की परिकल्पना को जमीन पर उतारने की ईमानदार कोशिश करनी होगी। मुश्किल यह है कि स्वदेशी का महिमामंडन तो बहुत किया जाता है, लेकिन लगभग हर क्षेत्र में विदेशी कंपनियों को अपने पांव पसारने की भूमिका बनाना क्या दशार्ता है? इनका विस्तार स्थानीय और छोटे कारोबारियों को कितने दिन खड़ा रहने देगा? लगभग सभी क्षेत्र में लागू होने वाली नई नीतियां देश में विदेशी कंपनियों पर निर्भरता बनाएगी और अर्थव्यवस्था के केंद्र को उनके ही इर्द-गिर्द समेटेगी। इससे किसका भला होगा?