राकेश सोहम्
पूरा एक साल बंधन खोलकर फुर्र हो गया! ऐसे लगता है कि अभी तो आया था नया साल, जब सबने मिलकर बीते साल का आकलन किया था! उस साल में ‘क्या खोया और क्या पाया’ का हिसाब लगाया गया था, नए साल के आगमन की खुशी में धूम मचाई गई थी, कितनों ने जमकर जश्न मनाया था, जाने कितनी मस्ती में सड़कों पर बेतहाशा वाहन दौड़ाए गए होंगे, कितने ही नए सपनों में डूब कर क्या-क्या खोजते रहे होंगे। और अब एक और साल निकल गया!
थोड़े से संजीदा लोगों ने साल को नई कसौटियों पर कसते हुए योजनाएं बनाई होंगी। कई अवसरों पर वादे किए होंगे, लेकिन पूरा साल मानो चुटकियों में बीत गया। वादे और महत्त्वपूर्ण योजनाएं धरी की धरी रह गर्इं। समय अपने निर्धारित तरीके से बीत गया। वह मानव द्वारा निर्धारित मापदंडों में चलता रहा। सेकंड, मिनट, घंटे, दिन और महीनों के बीच फिसलता रहा और लोग अपना तरीका ही निर्धारित करते रह गए। हम सब हर बार चूक जाते हैं। हमें चूकने में महारत हासिल हो गई है, क्योंकि हम समय को देखते हैं, उसे पकड़ने की कोशिश करते हैं और खुद को देखने से चूक जाते हैं। ऐसा करने वाले चूकते ही हैं। यह अदृश्य को पकड़ने की नाकाम कोशिश करने जैसा झक्कीपन है। यथार्थ की ओर पीठ करके बैठने जैसा उपक्रम है।
सवाल है कि आखिर आदमी अपने वादों को लेकर इतना कमजोर क्यों है! अपनी योजनाओं के प्रति उदासीन क्यों है? अपनी कसौटियों पर ढीला क्यों पड़ जाता है? ऐसे अनेक प्रश्नों की गहराई में जाएं तो पाएंगे कि प्रकृति हमारे साथ नहीं हैं। उस चेतना, उस ऊर्जा, उस शक्ति का अभाव है जो हमें जीवंत रखती है। प्रकृति प्रदत्त काया के लिए प्रकृति ही एकमात्र उपाय है। प्रकृति मानवीय जीवन से पलायन कर रही है। शहरी परिवेश से प्रकृति आमतौर पर विलुप्त होती जा रही है।
हरियाली का अभाव है। प्राकृतिक हवा की कमी है। मौन के सौहार्द या सद्भाव में वाहनों और कल-कारखानों की ‘सिंफनी’ शोर पैदा कर रही है। भोजन में रासायनिक जहर घोलती खाद्यान्न सामग्री है। जीविकोपार्जन की आपाधापी शहरी जीवन में प्राथमिक हो गई है। दिनचर्या के एक निर्धारित वर्तुल में घूमता हुआ उनका जीवन चक्करघिन्नी बन जाता है।
अनेक संजीदा लोग सुबह जल्दी बिस्तर छोड़ना चाहते हैं। रोज सुबह भ्रमण और व्यायाम का संकल्प लेते हैं। सही समय पर जागने या कोई काम करने के लिए घड़ी में अलार्म लगाते हैं। कुछ दिन बाद वही ढाक के तीन पात। वे उठते हैं, अलार्म को बंद करते हैं और बिस्तर में घुस जाते हैं। घड़ी का अलार्म बंद करना हमारे हाथ में होता है। अलार्म लगाना या नहीं लगाना भी हमारी मर्जी पर निर्भर करता। इस संकल्प में प्रकृति हमारी कोई मदद नहीं कर पाती, क्योंकि प्रकृति तो पलायन कर गई है। भोर के साथ चिड़ियों के चहकने का संगीत शहरों में अब नहीं है।
हौले से थपकी देकर जगाने वाला सूरज इमारतों के पीछे छिपा होता है। फूंक मारकर नींद उड़ा देने वाली सुबह की बयार भटक जाती है। ऐसे में कितने ही संकल्प बार-बार तोड़े जाते हैं। सारा दोष समय पर मढ़ दिया जाता है। कभी समय की कमी बताकर और कभी समय खराब होने का इल्जाम देकर लोग संतुष्ट हो जाते हैं।
सुदूर गांवों का वातावरण अब भी प्रकृति के करीब है जो कि निर्धारित संकल्प के निर्वाह के लिए अनुकूल होता है। प्रकृति मानवीय चेतना को सदैव चैतन्य रखती है। शाम की बेला सुकून से भर देती है। रात्रि का शांत वातावरण लोरियां सुनाने लगता है। नींद की आगोश में समा जाने की इच्छा बलवती हो उठती है। सुबह की शीतल हवा वंदना करती है। पंछियों का कलरव जगा देता है। सूर्य की रोशनी और हरियाली के सम्मोहन से शरीर में ऊर्जा का संचार होने लगता है। ऋतु परिवर्तन के अनुसार खेत-खलिहानों की अनुकूल व्यवस्था के लिए काया स्वयं ही तैयार होने लगती है। ऋतु के अनुकूल जानवरों की चर्या प्रकृति के अनुकूल व्यवहार का पाठ पढ़ाती है। कुल मिलाकर प्रकृति, कृतसंकल्पित होकर योजनाओं को पूरा करने में मदद करती है।
इसलिए शहरों में रहते हुए संकल्प को पूरा करने के लिए मजबूत जिजीविषा की आवश्यकता होती है। प्रकृति से जुड़े रहने की जरूरत होती है। इसके लिए प्रकृति के पास निकल जाने की एकसूत्रीय प्रतिबद्धता में बंध जाना सबसे आसान उपाय हो सकता है। वहां से संचित ऊर्जा से यह महसूस करें कि प्रकृति सदैव हमारे साथ है, हमारे अंदर है। नए साल के लिए प्रकृति के प्रति संकल्पित हो जाएं, बस।