राज वाल्मिकी

हरों-महानगरों में शांति और स्थिरता की खोज अपने आप में एक सपना हो चुका है। बल्कि यों कहें कि हर तरफ से भागते हुए दृश्य ही शहरों की खासियत और चेहरे हैं। ऐसी भागमभाग से भरी जिंदगी में मित्रों के साथ फुर्सत के पल बिताने के अवसर मुश्किल से ही मिलते हैं। अक्सर मित्रों-रिश्तेदारों के यहां या तो उनके बच्चों की शादी में या फिर उनके यहां किसी की मृत्यु होने पर ही जाना हो पाता है। फिर पैंतालीस-पचास की उम्र में वह ऊर्जा और उत्साह भी नहीं होता जो युवावस्था में होता है।

बहरहाल, कुछ दिन पहले एक मित्र से बात करने का बहुत मन हुआ तो उनके घर चला गया। लेकिन पता चला कि वे पति-पत्नी कुछ खरीदारी करने गए हुए हैं। घर में उनकी तीनों बेटियां थीं। हालांकि शहरों में एक सामाजिक व्यवहार बन गया है कि किसी के घर जाने से पहले फोन से उनसे बात कर ली जाती है। लेकिन मैंने यह नहीं किया था, इसलिए अपनी बेवकूफी पर थोड़ी कोफ्त हुई। खैर, बच्चियों ने चाय पीकर जाने की बात कही तो हम वहीं बैठ गए। मित्र की तीनों बेटियां कॉलेज में पढ़ रही हैं। उनमें से एक चाय बनाने किचेन में चली गई और दो वहीं बैठ कर बात करने लगीं। जब मित्र होते हैं तब वे सभी बस अभिवादन की औपचारिकता निभा कर अपने काम में मशगूल हो जाती हैं।

मुझे थोड़ी हैरानी इस बात पर हुई कि उन्होंने कॉलेज की छुट्टी होने पर खुशी या राहत जाहिर करने के बजाय कहा कि हमें तो कॉलेज जाने वाले दिन ही अच्छे लगते हैं। छुट्टी के दिन घर में बंद होकर रहना पड़ता है, टीवी देखते-देखते भी बोरियत होने लगती है। बीस से पच्चीस साल के बीच की उन दोनों लड़कियों ने बताया कि कॉलेज में पढ़ाई के साथ कम से कम अपनी सहेलियों से बातचीत करने का मौका तो मिल जाता है! वे बोले जा रही थीं- ‘यहां मम्मी-पापा घर से बाहर नहीं निकलने देते। कहते हैं कि जमाना बहुत खराब है। कुछ भी हो सकता है। न किसी रिश्तेदार के यहां जाने देते हैं और न पड़ोसियों के घर। उन्हें शायद किसी पर कोई भरोसा नहीं रह गया है। लड़कों को लेकर वे ऐसे डरे हुए हैं, जैसे वे कोई शैतान हों। हमारा दाखिला भी महिला कॉलेज में कराया है। कॉलेज से आने में जरा भी देर हो जाए तो मोबाइल पर फोन कर करके परेशान कर देते हैं। हम जानते हैं कि वे हमारी फिक्र में ऐसा करते हैं। लेकिन इतनी ज्यादा फिक्र ने हमारी जिंदगी को बोझ बना दिया है।’ लड़कियों की शिकायत वाजिब थी, पर मैं कुछ कहता तो मित्र बुरा मान जाते।

रास्ते भर मित्र की बेटियों की बातें दिमाग में गूंजती रहीं। हमारे देश की संस्कृति लैंगिक भेदभाव पर आधारित है। यहां बचपन से ही लड़के-लड़कियों में भेदभाव किया जाता है। यों कहने को हम हर वर्ष महिला सशक्तीकरण के नारे देते हुए अनेक आयोजन करते हैं, आंदोलन चलते रहते हैं। पितृसत्ता से स्त्री स्वतंत्रता की बात करते हैं। लेखन में स्त्री-विमर्श का दौर है। फिल्में भी स्त्री-विमर्श पर या स्त्री केंद्रित विषयों पर बनने लगी हैं। महिलाओं की बराबरी के लिए विभिन्न संस्थान काम कर रहे हैं। ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ अभियान जारी है। पर आज भी लड़कियां सुरक्षित नहीं हैं। शहरों-महानगरों में भी रईसजादे स्कूल-कॉलेज जाने वाली लड़कियों के खिलाफ आपराधिक वारदात करते हैं। अखबार में ऐसी खबरें आए दिन छपती रहती हैं।

ऐसे में माता-पिता का अपनी युवा बेटियों को लेकर चिंतित होना स्वाभाविक है। मगर अहम सवाल यह है कि सरकार से लेकर समाज तक के चिंतित होने के बावजूद हमारी बेटियां आज सुरक्षित क्यों नहीं हैं? क्या प्रशासन और पुलिस सुस्त है या फिर अपराधियों को पुलिस का डर नहीं है? समाज में संवेदनशीलता के विकास के लिए क्या कोई नीति है जो शुरुआत से ही बच्चों में महिलाओं के प्रति समानता के भाव का विकास करने में मददगार हो? जो भी हो, पर सच्चाई यह है कि महिलाओं के खिलाफ आपराधिक वारदात में लगातार बढ़ोतरी ही हुई है। निर्भया कांड के बाद जो सख्त कानून बनाए गए थे या जो माहौल बना था उससे समाज में बदलाव होने की उम्मीद जगी थी, लेकिन अब फिर उसी तरह की घटनाएं अपने घर की बच्चियों को लेकर दहशत से भर देती हैं। आज का माहौल इतना अराजक दिखता है कि हमारे जैसे युवा लड़कियों के माता-पिता भयभीत रहते हैं। लेकिन सवाल है कि हमारे इस भय की वजह से हमारी बेटियां अगर घर की चारदिवारी में बंद होने और अपने खुश होने के मौकों, सपनों को दफ्न करने पर मजबूर हो रही हैं, तो इस हालत के लिए आखिर कौन जिम्मेदार है!