कुछ माह पूर्व हमारे एक दूर के रिश्तेदार की बेटी का रिश्ता बाकायदा परंपरागत विवाह की तर्ज पर जन्म कुंडली मिलान से लेकर दहेज, शानदार भोज आदि के साथ दोनों पक्षों की सहमति से हुआ। लेकिन दो-तीन माह बाद ही अप्रिय समाचार आने लगे और पता चला कि नवदंपति के बीच सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। बाद में सामने आया कि लड़के का चाल-चलन और चरित्र ठीक नहीं था। दोनों पक्षों के माता-पिता की ओर से समझाने-बुझाने के बाद भी जब बात नहीं बनी और लड़की आखिर अपने घर लौट आई तो मामला काफी बिगड़ गया।

बहरहाल, शादी के चार-पांच माह बाद ही वह संबंध दरक गया और फिलहाल दोनों पक्ष कानूनी तौर पर एक साल के लिए अलग-अलग रह रहे हैं। वह भी शायद इसलिए कि दोनों पक्षों के माता-पिता सुशिक्षित और सुलझे हुए हैं। एक ऐसी ही घटना हमारे एक मित्र की बेटी के साथ हुई। लड़के के पिता के अड़ियल रवैये ने नव-विवाहिता को परेशान करना और आए दिन व्यंग्य बाण कसना शुरू कर दिया। दो-तीन साल तक मित्र ने धैर्यपूर्वक इंतजार किया, लेकिन बात बन नहीं सकी और अब मामला अदालत में है। लड़की काफी तनाव और जद्दोजहद के बाद मानसिक रूप से इस यथार्थ को स्वीकार कर पाई है और उसका एक चिकित्सक के पास इलाज चल रहा है।

ऐसे अनेक मामले सामने आते रहते हैं जिनमें इंजीनियरिंग, मेडिकल या किसी और भी क्षेत्र में उच्च शिक्षा प्राप्त लड़के की शादी हुई, लेकिन फिर लड़की को दहेज जैसे सामान्य कारण के अलावा उस पर अविश्वास या दूसरी वजहों से ताने और कई रास्तों से परेशान किया जाने लगता है। जो लड़कियां आत्मनिर्भर और आत्मविश्वास से भरी हुई होती हैं, वे तो इस तरह के आघात का सामना कर लेती हैं, लेकिन कई पूरी तरह बिखर और टूट जाती हैं। ऐसी ज्यादातर घटनाओं में समाज मौन ही रहता है और कोई निर्णायक भूमिका नहीं अदा कर पाता है। मेरे इर्द-गिर्द इतनी तेजी से नवविवाहित परिवारों के विघटन के मामले पिछले दो-तीन सालों में हुए हैं कि मैं हतप्रभ हूं। संपर्क के ही एक परिवार की लड़की का विवाह चार साल पहले हुआ था। उसे इसलिए ससुराल से लौट जाना पड़ा कि वहां के लोग उसे अपनी तरह दकियानूस बना देना चाहते थे।

किसी अच्छे आधुनिक स्कूल या कॉलेज में पढ़ी-लिखी लड़की को अगर विवाह के बाद सामान्य कामकाज के लिए घर से बाहर जाने की अनुमति नहींं हो, उसे अपने बच्चों को पास में स्थित स्कूल भी लाने-ले जाने की छूट नहीं हो तो सवाल उठता है कि आखिर हम किस समाज में रह रहे हैं? पढ़-लिख कर भी हमारी मध्ययुगीन मानसिकताएं नहींं बदल पाई हैं। स्त्रियों को आज भी हम दोयम दर्जे की नागरिक मान कर उनके साथ उसी तरह का व्यवहार करना चाहते हैं। एक सर्वे के अनुसार परिवार न्यायालयों में दिल्ली और दूसरी जगहों पर प्रतिवर्ष तलाक के मामले बढ़ रहे हैं। लेकिन अफसोस तब होता है जब पढ़े-लिखे और समझदार दंपति भी इससे निपटने के लिए कोई समझदारी और सम्मानजनक रास्ता नहीं निकालते।

मैंने देखा है कि कई बार ऐसे दांपत्य संबंधी अलगाव के मसलों में संतान की स्थिति बेहद चिंतनीय हो जाती है। उसके बाल मन पर बहुत नकारात्मक प्रभाव पड़ते हैं। इस समस्या के लिए आमतौर पर समाज के अनपढ़ तबके को निशाना बनाया जाता है, लेकिन सच यह है कि पढ़े-लिखे परिवारों में भी लड़कियों या बहुओं के साथ ऐसे व्यवहार होते हैं कि आखिरकार उसे कोई सख्त फैसला लेना पड़ता है। वैसे भी जहां पति-पत्नी दोनों आर्थिक रूप से स्वनिर्भर होते हैं, वहां यह उम्मीद करना कि पत्नी किसी गलत बातों का दबाव बर्दाश्त करती रहेगी, संभव नहीं रह गया है। जाहिर है, परंपरागत रूप से पितृसत्तात्मक मानसिकता की बुनियाद से शुरू हुई लड़ाई स्त्री के लिए कई बार स्वाभिमान का मामला भी बन जाता है।

मगर सवाल है कि अस्तित्व का ऐसा टकराव कहीं दूरियों से निपटने में बाधक तो नहीं साबित हो रहा है! आज संयुक्त परिवार बहुत कम बचे रह गए हैं और उनकी तादाद लगातार घटती जा रही है। नवविवाहितों के बीच गलतफहमी दूर करने, समझाने आदि के लिए घर में बुजुर्ग अब कम मिलते हैं। नतीजतन, संवाद के अभाव में कई बार कोई छोटी-सी लड़ाई भी बड़ा रूप धारण कर लेती है। जाहिर है, टूटते रिश्तों के पीछे पुरुषवादी सोच और महिलाओं की आर्थिक आजादी की भूमिका बड़ी है। पति-पत्नी के बीच आपसी समझ पैदा करने की जरूरत है, लेकिन यह स्त्री के स्वाभिमान के दमन की कीमत पर नहीं हो तभी कोई अच्छा नतीजा निकलेगा।