इस दौरान अगर स्कूली शिक्षा पर एक नजर डालें तो परंपरागत चुनौतियों के अलावा कुछ नई चिंताएं उभर रही हैं। स्कूल जाने वाली लड़कियां रास्ते में मनचलों की फब्तियों से डरती रही हैं और कई बार अपनी शिक्षिका, अन्य वयस्क के साथ या फिर समूह में स्कूल जाती हैं। उन्हें लगता है कि शिक्षक के साथ होने से रास्ते में उन पर टिप्पणी करने वाले लिहाज करेंगे और वे थोड़ा निर्भय होकर स्कूल से घर आना-जाना कर सकेंगीं। लेकिन जब शिक्षिका को ही स्कूली छात्र स्कूल परिसर में भयाक्रांत करने लगें तब क्या होगा?

कुछ समय पहले उत्तर प्रदेश के मेरठ में बारहवीं में पढ़ने वाले चार विद्यार्थियों के खिलाफ एक महिला शिक्षक को पुलिस में लिखित शिकायत करनी पड़ी। आरोप है कि उन्होंने शिक्षिका को कई महीनों तक परेशान किया, रास्ते में आते-जाते अश्लील टिप्पणी करते रहे। स्कूल परिसर में भी फब्तियां कसते रहे। शिक्षिका ने कई बार इन छात्रों को समझाने की कोशिश की, लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ा।

एक दिन छात्रों ने शिक्षिका पर अशोभनीय टिप्पणी करते हुए वीडियो बनाया और उसे सोशल मीडिया पर डाल दिया। लड़कियों की सुरक्षा के लिए महिला पुलिस से लेकर प्रशिक्षण तक का इंतजाम किया जाता रहा है, लेकिन अगर एक महिला शिक्षक को अपने स्कूल परिसर में ही इस तरह की घटना से गुजरना पड़े तो फिर वहां पढ़ने वाली लड़कियों की क्या स्थिति होगी? पहली पीढ़ी में लड़कियों को स्कूल भेजने वाले मां-बाप इस घटना को कैसे देखेंगे? क्या सिर्फ पुलिस में मामला दर्ज होने से ऐसी घटनाएं रुक जाएंगी?

दूसरी घटना राजस्थान के एक अन्य निचली कक्षाओं वाले स्कूल में घटी, जहां एक छात्र ने स्कूल के प्रधान शिक्षक के मटके से पानी पी लिया था। कथित रूप से जातीय पूर्वाग्रह के चलते शिक्षक ने उस छात्र की पिटाई की। कुछ दिनों बाद छात्र की मृत्यु हो गई। क्या यह घटना हमें शिक्षा की अपनी सीमा बताती है कि ‘डिग्री’ ले लेने और शिक्षक बन जाने के बाद भी जरूरी नहीं है कि सभी उन मूल्यों को आत्मसात कर लें, जिन्हें पढ़ते हुए वे शिक्षक बने और शिक्षक बन कर उन मूल्यों को विद्यार्थियों में विकसित करने की जिम्मेदारी है? क्या शिक्षक प्रशिक्षण से लेकर स्कूल की प्रार्थना तक शिक्षा व्यवस्था का एक बेहतर मनुष्य बनने पर जो जोर रहता है, वह अपने उद्देश्य में आंशिक सफल है?

एक अन्य घटना में कुछ महीने पहले उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले के एक स्कूल में बारहवीं के दो छात्रों के बीच लड़ाई हुई। एक छात्र ने प्रधानाचार्य से शिकायत की। प्रधानाचार्य ने इस मामले में हस्तक्षेप किया और दूसरे छात्र को डांटा-फटकारा। इस बात से नाराज छात्र ने देसी कट्टे से स्कूल के भीतर ही प्रधानाचार्य पर तीन गोलियां दाग दीं। घायल प्रधानाचार्य को इलाज के लिए लखनऊ भेजा गया।

क्या अब स्कूलों के प्रधानाचार्य को अनुशासन बनाए रखने के लिए पुलिस सुरक्षा में चलना होगा? इसी तरह, कर्नाटक के उडुपी जिले के एक निजी विश्वविद्यालय से सुर्खियों में आए एक वीडियो के मुताबिक एक शिक्षक ने अपनी कक्षा के एक छात्र का नाम पूछा और फिर उसकी तुलना आतंकवादी हमले के मुख्य आरोपी से कर दी। 2012 में उस आतंकवादी को फांसी की सजा दी गई थी। छात्र ने शिक्षक की इस टिप्पणी पर कड़ा प्रतिरोध किया। शिक्षक ने पहले इसे मजाक कहा, लेकिन फिर अपने इस कथन के लिए माफी मांगी! हो सकता है उस छात्र ने अपने शिक्षक को माफ कर दिया हो, लेकिन कक्षा के भीतर इस तरह की टिप्प्णी गंभीर चिंता पैदा करती है।

सन 1994 में अफ्रीकी देश रवांडा में भयंकर जनसंहार हुआ था। सौ दिन में आठ लाख लोग मारे गए। वहां हुतू-तुत्सी जातियों के बीच खाई बढ़ाने में शिक्षकों की प्रमुख भूमिका रही थी। कई हुतू शिक्षक स्कूल के भीतर तुत्सी छात्रों की तुलना एक खतरनाक सांप से करते थे। जब वहां हिंसा भड़की, तब बड़ी संख्या में शिक्षक और छात्रों ने एक दूसरे पर हमला किया। हिंसा के बाद दोनों समुदायों ने यह महसूस किया कि उनके बीच अविश्वास बढ़ाना औपनिवेशिक राजनीति का हिस्सा था। इसलिए दुनिया में कहीं भी हो, कक्षा का विमर्श और प्रक्रिया विद्यार्थियों के बीच और शिक्षकों के साथ विश्वास बढ़ाने वाला ही होना चाहिए।

क्या ये अलग-अलग घटनाएं स्कूल-कालेज के भीतर विद्यार्थियों-शिक्षकों के बीच घटते परस्पर सम्मान और बढ़ते अविश्वास को रेखांकित करते हैं? स्कूल को समाज का एक छोटा रूप माना जाता है और शिक्षा से यह उम्मीद की जाती है कि वह समाज के लिए जिम्मेदार नागरिक तैयार करेगा। क्या स्कूल के बाहर की घटनाएं और मीडिया विमर्श इतना अधिक प्रभावशाली हो चला है कि स्कूल-कालेज अपनी परंपरागत भूमिका का निर्वहन करने में असमर्थ हो रहे हैं? उम्मीद की जानी चाहिए कि शिक्षा को संचालित और मार्गदर्शित करने वाली संस्थाएं इन उभरती प्रवृत्तियों को अपने विमर्श का हिस्सा बनाएगी।