कुर्सी पा लेना जितना आसान है, उस पर कुशलता से बैठ पाना उतना ही कठिन। पद सभी चाहते हैं, लेकिन पद पर रहने का सलीका कितने लोगों को आता है! कुर्सी पर बैठना, यानी जिम्मेदारी संभालना भी एक कला है। कौन कुर्सी पर बैठने योग्य है और कौन नहीं, यह तभी पता चलता है जब कोई व्यक्ति काम करने लगता है। उसके काम करने की शैली, बर्ताव और लोगों से घुलने-मिलने या फिर सभी को दरकिनार कर लोगों से अलग-थलग रहने लगने से उसकी क्षमता या अक्षमता का पता चलता है।

मैंने पदोन्नति की चाह में बेचैन रहते और इसके लिए जीतोड़ कोशिश और जुगाड़ करते कई लोगों को देखा। जब वे पदोन्नत हो गए तो उनमें से कई हमेशा असहज ही बने रहे। या तो वे जोर-जोर से चिल्लाते थे या फिर अकेले बैठना पसंद करते थे। उन्हें लगता था कि जोर से बोलने से उनका रोब बढ़ेगा और उनके मातहत सभी लोग उनसे डरेंगे। डांट-डपट कुछ लोगों की कार्यशैली का अहम अंग होती है। हालांकि यह ठसका कभी-कभी महंगा भी पड़ता है।

खासकर जब सामने वाला अधिक ताकतवर हो। हमेशा गले में ‘टाई’ बांधे रहना, इधर-उधर न देखना और लोगों के अभिवादन का जवाब केवल सिर हिला कर देना, कभी गलती से भी न मुस्कराना और हमेशा गुस्से में ही बने रहना उन्हें अफसरी की कामयाबी के लिए जरूरी लगता है। यह अलग बात है कि अपने से बड़े अफसर के सामने वे मिमियाते नजर आते हैं। पर अपने अहाते के शेर होते हैं। ऐसे लोगों को भला कौन पसंद करेगा? स्थानांतरण या सेवानिवृत्ति के बाद उन्हें कोई पहचानता भी नहीं।

इसके ठीक विपरीत ऐसे भी लोग हैं जो तरक्की पाने पर अपने काम में तो होशियार होते हैं, लेकिन व्यवहार और कार्यशैली में जरूरत से ज्यादा विनम्र। ऐसे लोगों की कोई परवाह ही नहीं करता। बल्कि लोग उनकी उपेक्षा करने लगते हैं। वे जानते हैं कि ऐसा व्यक्ति कभी किसी का बुरा नहीं कर सकता। ऐसे व्यक्ति से भला क्या डरना? वे कमजोर प्रशासक माने जाते हैं। गनीमत है कि वे दोनों पैर ऊपर करके कुर्सी पर नहीं बैठते। उनके लिए बड़ा बाबू और एकाउंटेंट इतने महत्त्वपूर्ण होते हैं कि वे उनसे पूछे बिना कोई काम नहीं करते। इतना डर कर काम करने वाले को भी कुर्सी पर बैठने में दिक्कत होती है।

कुर्सी का असली हकदार वह व्यक्ति होता है जो स्वविवेक से, सोच-समझ कर और बिना डरे या पक्षपात किए हर मसले के गुण-दोष के आधार पर निर्णय ले। न फिजूल का रोब झाड़े और न बेहद विनम्र और हर किसी के आने पर उसके स्वागत में खड़ा हो जाए। जब आप जिम्मेदार पद पर बैठ गए हैं तो न दफ्तर के लोगों को डराएं-धमकाएं, न खुद डरें। नियम-कायदे देखें, समझें और तर्क के आधार पर फैसला करें। मैंने ऐसे कर्तव्यनिष्ठ लोगों को देखा है जो बिना किसी बात की परवाह किए जो उचित समझते थे, वही करते थे।

एक प्राचार्य सेवानिवृत्ति के बाद अब तक करीब तीस वर्षों से नैतिक आधार पर उच्चशिक्षा विभाग से लड़ाई लड़ रहे हैं। वे अच्छे प्राध्यापक और प्राचार्य होने के बावजूद नियम का कड़ाई से पालन करने की आदत के कारण कानूनी लड़ाई लड़ रहे हैं। दरअसल, सिर ऊंचा और मेरुदंड को सीधा रख कर जी-हुजूरी करने के बजाय सहज, सरल और ठंडे दिमाग से सोच कर न्याय संगत निर्णय लेने की क्षमता रखने वाले गिने-चुने ही हैं।

जो न झुके और न ही औरों को झुकाए, पारदर्शिता और साहस से काम करे, वही पद पर बने रहने, यानी कुर्सी पर बैठने का अधिकारी है। वरना मुहूर्त देख कर पद ग्रहण करने भर से कार्यकाल अच्छा नहीं होता। अच्छे नतीजे, अच्छी नीयत और अच्छे वातावरण में काम करने से कार्यकाल की प्रशस्ति बढ़ती है। एक अच्छा प्रशासक सबको खुश रखने के बजाय सही नीति पर चलता है और कर्तव्यनिष्ठा पर ध्यान देता है। हालांकि कई बार उसे अपने कर्तव्यनिष्ठ होने की कीमत चुकानी पड़ती है। ऐसे व्यक्ति अपवादस्वरूप ही मिलते हैं। लेकिन यह ध्यान रखने की जरूरत है कि आज तक केवल पद या कुर्सी पर बैठ कर कोई आदमी बड़ा नहीं हुआ। ऊंचे पद या कुर्सी पर बैठ जाने के बाद अपने व्यक्तित्व, अपनी कर्तव्यपरायणता, काम करने की शैली और व्यवहार से ही आदमी बड़ा होता है।

सूर्यप्रकाश चतुर्वेदी

 

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