रनबीर परमार
बेरहम कोरोना महामारी ने चाहे जितना कहर मनुष्य जाति पर ढाया हो, पर निश्चय ही इसने कुछ सबक भी दिए हैं। इसके दिए कई सबकों में से एक है कुछ न करने की विलक्षण कला का विकास! लंबा चलने वाली पूर्णबंदी और सामाजिक दूरियां, कुछ भी न करना दरअसल सीखने के सुनहरे अवसर ही तो थे।
उन दिनों एक सेवानिवृत्त परिचित से फोन पर बात हुई कि आप क्या करते हैं आजकल दिन भर, तो उत्तर मिला कि वही जो जिंदगी भर मजे में करता रहा… यानी कुछ नहीं। इसी आशय के सवाल पर एक अन्य सज्जन का उत्तर कुछ अधिक स्पष्ट था कि सुडोकु, क्रासवर्ड और ब्रिज में दो-तीन घंटे शानदार निकल जाते हैं, फिर दिन भर कुछ न करते-करते इतना थक जाते हैं कि थोड़ा विश्राम जरूरी हो जाता है।
कई बार ऐसा लगता है कि खाली बैठने या कुछ न करने को निकम्मेपन की संज्ञा देना आखिरी तौर पर ठीक बात नहीं है। खिड़की से बाहर शून्य में ताकते हुए पूरा दिन बिता देना भी एक कला है और इस तरह खिड़की से बाहर एकटक ताकते हुए किसी लेखक को निकम्मा कह कर कोसने वाले लोग यह नहीं समझ सकते कि वह लेखक इस समय कुछ न करते हुए भी कुछ कर रहा होता है। कौन जाने किस ‘ओडिसी’ या ‘मेघदूतम’ जैसे महाकाव्य की रचना इसी तरह के समय में हो रही हो!
वैसे भी कुछ न करते हुए सारा दिन बिताने पर ऐसा करने वाले व्यक्ति को किसी अपराध भावना से ग्रसित होने की आवश्यकता नहीं है। शुरू में इससे किसी को थोड़ी बेचैनी, उदासी या बोरियत का अनुभव हो सकता है, पर धीरे-धीरे कुछ न करने के आलस्य का सृजनात्मक महत्त्व व्यक्ति को समझ में आने लगेगा। इसी सृजनात्मक आलस्य का जिक्र रोमांटिक कवि कीट्स ने अपनी कविता ‘ओड आन इन्डोलेंस’ में किया है।
यहां ‘मधुमय आलस्य’ में डूबा हुआ कवि अधमुंदी आंखों से प्रेम। महत्त्वाकांक्षा और काव्य की आकृतियों को घूमते हुए कलश पर उभर कर विलुप्त होते हुए देखता है। इनमें से कोई भी आकृति उसे अपनी अर्धसुप्त अवस्था से बाहर आने के लिए लालायित करने में असमर्थ है। और गुलजार साहब भी इन पंक्तियों में इसी आलस्य के स्वर्ग को तलाशते नजर आते हैं, ‘दिल ढूंढ़ता है… फिर वही… फुर्सत के रात-दिन..!’ कई बार ऐसा लगता है कि मानव मन सदा उन खाली दोपहरों को ढूंढ़ता रहा है जो घास पर चित्त लेट कर आकाश को ताकते हुए गुजर जाए!
फुर्सत या खाली समय के उपयोग की उत्तमता ही बताती है कि हम सभ्यता के किस पायदान पर पहुंचे हैं। क्या कोई दिन भर व्यस्त रहने वाला व्यक्ति किसी महान साहित्य का सृजन कर सका है या किसी नए अविष्कार या खोज तक पहुंच सका है? न्यूटन एक दिन आराम से पेड़ के नीचे बैठे या लेटे आसमान में नजरें गड़ाए खुली आंखों से शायद सपने ही देख रहे थे, जब उनके पास एक सेब टपका और दुनिया को गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत मिल गया।
अर्शमेदस ने उत्प्लावकता के नियम की खोज किसी प्रयोगशाला में सिर खपाते हुए नहीं, बल्कि फुर्सत के समय आराम से टब में नहाते हुए की थी। और संसार के महानतम ग्रंथों की रचना कई बार जेल यात्राओं के दौरान भी हुई हैं या फिर एकांतवास में, जब रचनाकारों के पास कुछ भी करने के लिए नहीं था और उन्होंने उस काम पर अपना ध्यान पूरी तरह केंद्रित किया था। इस काम में उन्हें बाधित करने वाली परिस्थितियां भी नहीं थीं।
इस संदर्भ में काडबरी का एक विज्ञापन आजकल प्रसारित होते देखा जा सकता है। इसमें कुछ न करने की महिमा को अलग ही तरीके से उजागर किया गया है। एक बालकनी के नीचे कुर्सी पर बैठी वृद्ध महिला की छड़ी सामने सड़क पर गिर जाती है तो वह सामने खड़े चाकलेट खाते युवक से छड़ी उठा कर देने का आग्रह करती है।
युवक पहले मदद करने के लिए हामी भरता है, पर कुछ नहीं करता, बस चाकलेट खाता रहता है। विवश होकर महिला छड़ी उठाने के लिए कुर्सी से उठ कर सड़क पर आती है और उसी समय ऊपर की बालकनी टूट कर उसकी खाली कुर्सी पर गिर पड़ती है। वृद्ध महिला तरल आंखों से चाकलेट खाते युवक को देखती हुई कहती है- ‘थैंक यू बेटा, कुछ न करने के लिए धन्यवाद।’
हालांकि चाकलेट की बिक्री के लिए बनाया गया यह विज्ञापन चाकलेट की महिमा को प्रदर्शित करता है, लेकिन इस तरह के आलस्य या स्वकेंद्रित होना मानवीय मूल्य तो नहीं ही हैं। बहरहाल, महामारी का दौर समाप्त होने के बाद भी जीवन व्यतीत करने के लिए ब्रह्मसूत्र है- कुछ किया जाए या नहीं किया जाए, लेकिन खुश रहना चाहिए और दूसरों को भी खुश रहने दिया जाए।