दुनिया को अलग-अलग आयाम से समझने के लिए यात्राएं सबसे अच्छा जरिया हैं। ये हमें हर बार नए अनुभव देती हैं। राहुल सांकृत्यायन ने अपनी घुम्मकड़ी के जरिए हिमालय की दुनिया अपने यात्रा संस्मरणों के रूप में हमें दिखाया, जिन्हें पढ़ कर मन झंकृत हो जाता है। किसी खास जगह को समझने के लिए घूमना आपको कई बार कितना झकझोर देता है, यह मैंने अपनी कुछ समय पहले हिमाचल प्रदेश में धर्मशाला और मैकलोडगंज की घुमक्कड़ी के दौरान जाना। जब मैं अपने सफर के दौरान ‘अतुल्य भारत’ को देख कर गौरवान्वित महसूस कर रहा था, तभी मुझे मैकलोडगंज में एक अविस्मरणीय जगह को देखने का मौका मिला। यह जगह अपने आप में एक समूचे तिब्बत को आंखों के सामने ला देती है।
यहां तिब्बत से निर्वासित लोगों से आबाद बस्ती और माहौल को देखा और महसूस किया जा सकता है। कायदे से कहें तो यहां एक छोटा-सा तिब्बत बसता है। यहां रहने वाले तिब्बती लोगों का धीर-गंभीर स्वभाव किसी भी बाहर से गए व्यक्ति का ध्यान खींचता है। उस बस्ती में मुझे उनकी मिट्टी की गंध साफ-साफ महसूस हो रही थी। इतने सालों से निर्वासित जीवन के बावजूद उनके बीच एक उम्मीद और हौसला देख कर अपनी समस्याओं या सवालों में घिरे लोगों को भी उत्साह मिल सकता है। एक दिन अपने देश और अपनी जमीन पर लौटने की उनकी आशाओं के पुंज आज भी प्रज्ज्वलित हैं।
पहली नजर में तिब्बती मंदिर किसी को पूजा-स्थल लग सकता है, लेकिन इससे ज्यादा यह तिब्बतियों की हक की लड़ाई का एक प्रेरक स्थल है। इस मंदिर में एक शानदार तिब्बती संग्रहालय है, जहां अब तक के तिब्बत के समूचे संघर्ष को विस्तार से प्रदर्शित किया गया है। दरअसल, यह आम धार्मिक स्थलों के मुकाबले क्रांति के प्रतीक स्थल और उसके इतिहास को समझने का मौका देता है। यहां एक खास तरह की आध्यत्मिक शांति मौजूद है, लेकिन दूसरी ओर क्रांति की गूंज भी सुनाई देती है। ऊपर बने मंदिर के मुख्य भवन में पहुंचते ही लाल गेरुए वस्त्रों में बैठे बुजुर्गों का हुजूम था। इस जमावड़े में स्त्री और पुरुष दोनों थे।
मुख्य मंदिर के भवन में बुद्ध की विशाल प्रतिमा और एक कमरे में सैकड़ों दीपक प्रज्ज्वलित थे। वहां बैठे बुजुर्गों में महिलाओं की संख्या ज्यादा थी। उन सबकी आंखों में निर्वासित होने के दुख से उपजी चुप्पी साफ नजर आ रही थी। वे लगातार बुद्ध को ‘ल्हासा’ चलने के लिए मनाती नजर आती हैं। ल्हासा की सैकड़ों माएं सुबह-सुबह मंदिर जाती हैं और शाम ढलने के बाद घर लौटती हैं। जाहिर है, इन मांओं की आंखों में टिके सपने हर वक्त अपनी धरती पर लौटने की बाट जोह रहे हैं, जहां इनके बेटे-बेटी, नाती-पोते अपनी जमीन पर और दुनिया की छत पर अपने सपनों को जी सकें।
पता नहीं क्यों, मैं बार-बार बुद्ध की उस विशाल प्रतिमा को देखता था, फिर उन मांओं के चेहरों की ओर। दिमाग में यही बात आ रही थी कि अगर कहीं चीन में भी कोई बुद्ध हैं और उन्हें इन महिलाओं की पीड़ा समझ में आती है तो वे वहां के हुक्मरानों से क्यों नहीं कह देते कि वे माएं अपनों बच्चों के लिए एक शांत और सहज जिंदगी चाहती हैं। एक ऐसी आबोहवा, जहां वे याक के साथ अपना जीवन अपनी भूमि पर अपने परिवार के साथ बितातीं।
तिब्बत से इतर किसी खास देश की नागरिकता किसी स्तर पर उन्हें विकास और सहज जीवन का सुख दे भी सकती है, लेकिन अपनी मिट्टी को लेकर भावुक और संवेदनशील लोगों के लिए यह कोई स्थायी हल नहीं होता। अपने सपनों को पूरा करने के लिए उन्हें अपनी मिट्टी की खुशबू में रचना-बसना है। आधुनिक राज्य कल्याणकारी हो सकते हैं, लेकिन उन्हें लोगों की जिजीविषा के साथ संवेदना को भी समझने की जरूरत है। संभव है कि चीन तिब्बत को विकास दे, लेकिन इन मांओं को सिर्फ अपने बच्चे चाहिए, जिन्हें वे प्यार कर सकें।
मैं वहां सब कुछ जितना देख रहा था, उससे ज्यादा महसूस कर पा रहा था। मैंने कुछ महिलाओं से बात करने की कोशिश की। लेकिन शायद वे मेरी भाषा नहीं समझ पार्इं और न मैं उनकी बातें समझ सकने की हालत में था। इसलिए एक दूसरे व्यक्ति का सहारा लेना पड़ा। लेकिन उन महिलाओं के हर भाव में निर्वासित होने के दुख के साथ ल्हासा के पहाड़ों-सा विश्वास भी था कि वे एक दिन अपने घर लौटेंगी। मैंने भी अपनी नास्तिकता को एक किनारे रखते हुए बुद्ध से दुआ मांगी कि वे इन मांओं के भरोसे का खयाल रखें। अब कई बार ऐसा लगता है कि एक राज्य के होने को कैसे देखें, जहां लकीर किसी मां ने नहीं खीचीं, मगर दिलचस्प यह है कि अपनी भूमि को हम सब मां कहते हैं।