सरस्वती रमेश

पिछले दिनों दिल्ली में सरेराह एक किशोरी पर तेजाब हमले से महिलाएं सकते में हैं। यह छिपी बात नहीं है कि तेजाबी हमला कई मायनों में हत्या से भी अधिक जघन्य और पीड़ादायक होता है। तेजाब न सिर्फ किसी स्त्री के चेहरे को विकृत कर देता है, बल्कि उसकी आत्मा पर भी घाव के निशान छोड़ जाता है। स्त्री जलन की असहनीय पीड़ा से तो देर सबेर निकल जाती है, लेकिन उसका विकृत चेहरा उसके व्यक्तित्व को खंडित कर देता है। उसकी पहचान को बदल देता है। हमारे समाज को सोचने-समझने का जो ढांचा है, उसमें उसके सपनों पर पानी फेर देता है।

तेजाबी हमलों से पीड़ित स्त्रियां दो मोर्चों पर संघर्ष करती हैं। एक तो अपने आप से, दूसरा समाज की सोच से। एक लड़की का अगर किसी कारण चेहरा बिगड़ जाता है तो सबसे पहले वह खुद ही उस चेहरे के साथ जीना नहीं सीख पाती है। किसी काम को करने या किसी लक्ष्य को हासिल करने की बात पर उसका विकृत चेहरा हर वक्त आड़े आता है। इस पर समाज की उपेक्षा, अवहेलना कोढ़ में खाज का काम करती है।

आधुनिकता के तमाम तामझाम के बावजूद लड़कियों के मामले में हमारे समाज की सोच दकियानूस बनी हुई है। तेजाबी हमले से पीड़ित लड़कियों के प्रति उनके मन में उपेक्षा या फिर घृणा का भाव होता है। ऐसी लड़कियों को उनके बिगड़े चेहरे के साथ स्वीकारना और सहयोग करना हमारा समाज अब तक नहीं सीख पाया है।

उनके साथ कुछ ऐसा व्यवहार किया जाता है, जैसे वे पीड़ित न होकर अपराधी हों। इस तरह पीड़ित महिला कदम-कदम पर अपने साथ हुए हमले का उत्पीड़न झेलती है। इसलिए ऐसी उत्पीड़ित महिलाओं का शारीरिक इलाज करने के साथ-साथ उनके मन को सहारा देने और जरूरी होने पर इलाज भी करने की जरूरत है। उनके टूटे मन, आत्मा को जोड़ने का प्रयास किया जाना चाहिए। परिवार समाज उनसे सहानुभूति रखे और इस पीड़ा से निकलने में उनकी मदद करे।

तेजाबी हमले का दूसरा पक्ष हमलवार की मानसिकता से जुड़ा हुआ है। पहला तो ये कि लड़के किस मानसिकता में पले-बढ़े हैं कि वे किसी नाबालिग लड़की को जबरन दोस्ती या बातचीत के लिए मजबूर करना अपना अधिकार समझ रहे हैं! दूसरा ये कि पकड़े जाने के बाद भी उन्हें कोई अफसोस या शर्मिंदगी नहीं होती। ये बातें हमारे समाज परिवार में लड़कों की परवरिश के ढांचे पर ही सवाल उठाने वाले हैं। वही ढांचा, जो कहता है कि लड़की किसी मांग के जवाब में ‘न’ कहे तो उसे पीड़ा देना अपराध नहीं, अधिकार है। ये ढांचा ही समाज में तेजाब फेंकने वाले पैदा कर रहा।

डर सिर्फ एक तेजाब का नहीं है। अलग-अलग रूप में कई तरह के ‘तेजाब’ अलग-अलग तरीके से लड़कियों-महिलाओं की जिंदगी कुरूप बनाते रहे हैं। ऐसी घटनाएं हर दिन घट रही हैं। सिर्फ कुछ प्रकाश में आती हैं। कुछ यों ही दबकर रह जाती हैं। अब तो बच्चियां भी निशाने पर ली जा रहीं, क्योंकि उनको हिंसा का शिकार बनाना और डरा-धमका कर चुप कराना अधिक आसान है।

पिछले दिनों कर्नाटक में मांड्या जिले के पांडवपुरा में घटी घटना यही बयान करती है, जहां स्कूल के प्रधानाध्यापक ने छात्रावास में रह रही किशोरियों के साथ यौन हिंसा की। ऐसा वह पिछले काफी समय से कर रहा था। मामला तब प्रकाश में आया जब उसने जांच के बहाने लड़कियों को अपने कमरे में बुलाया और उन्हें गलत तरीके से छूने लगा। लड़कियां मदद के लिए चिल्लार्इं। तब उनकी सहेलियों ने कमरे में पहुंचकर प्रधानाध्यापक की लाठी-डंडों से पिटाई कर दी।

असल में हमारे घर-परिवार में महिलाओं पर हाथ उठाना, गाली-गलौज करना, उन्हें नीचा दिखाना आम बात है। अधिकतर महिलाएं यह सब सहन करते हुए उसी घर में बनी रहती हैं। पुरुष इसे उनका स्वभाव समझ उन पर हावी रहते हैं। जो लड़के ऐसी प्रताड़ना को देखते, सुनते हुए बड़े होते हैं, वे महिला के साथ हिंसा करना कोई गलत बात नहीं मानते। इसे वे अपना अधिकार समझने लगते हैं। यही कारण है कि सख्त कानून बनने के बावजूद महिलाओं के साथ हो रही हिंसा में कोई कमी नहीं आ रही।

कानून के साथ सामाजिक सोच में बदलाव की कारगर पहल जब तक नहीं होगी, तेजाबी हमले से लेकर यौन शोषण की घटनाएं होती रहेंगी। बदलाव की शुरुआत हमें अपने घर से ही करनी होगी। अपने बेटों को बचपन से ही बताना होगा कि लड़कियां प्रताड़ित करने का सामान नहीं, सम्मान और बराबरी की हकदार हैं।