शरद उपाध्याय
यह लिखते समय निदा फाजली को कहां अहसास होगा कि वे अपने देश के बच्चों की कहानी लिख रहे हैं। कहानी हमारे सभी शहरों की या देश के हर हिस्से की है। कोटा में मेडिकल और इंजीनियरिंग के कोचिंग के लिए हर साल बच्चों का सैलाब उमड़ता है। कुछ अच्छी जिंदगी के सपनों को लिए, कुछ मां-बाप की उम्मीदों को ढोते हुए ढेर सारे बच्चे न जाने कहां-कहां से आते हैं। सबसे ज्यादा नंबर लाने वाले बच्चों के लगे हुए बड़े-बड़े विज्ञापन सभी को बहुत आकर्षित करते हैं। विशेषकर उन मां-पिता को, जिन्हें शिक्षा उच्च वर्ग में पहुंचने का एक रास्ता दिखता है। विदेश में नौकरी के ख्वाब, ऊंची तनख्वाहों के सपनों में मां-पिता खो जाते हैं।
इसी शहर में हाल में ही एक दिन में तीन बच्चों ने आत्महत्या कर ली। बात वही कि वे प्रतियोगिता के भारी दबाव को नहीं झेल पाए। आत्महत्या की खबर से शहर एक पल फिर चौंक उठा, पर अब तो यह जैसे यह सामान्य खबर हो गई है। यह बात हर जगह की है। कहीं पढ़ाई, कहीं नौकरी, कहीं छोटी-छोटी बातों से आहत होकर बच्चे गलत कदम उठा रहे हैं।
कभी नशा, कभी अवसाद तो कभी आत्महत्या- इन्हीं रास्तों पर निकल पड़ते हैं। कभी-कभी लगता है कि बचपन से ही कहीं परवरिश में कसर रह गई। लगा इसी बहाने कुछ खोए-खोए से, कुछ अपने में गुम हुए बच्चों के जीवन के अनछुए पहलुओं को छू लिया जाए। बच्चों के छोटे हाथों में न तितलियां हैं, न कदम धूल-धूसरित हैं और न आसमान में उड़ती पतंगों की ओर आंखें हैं।
बच्चों के बालपन में आंखें गड़ाकर देखने पर पता चलता है कि नन्हे-नन्हे बच्चों की मुट्ठी में बंद सपने कहीं खो गए हैं। हाथों में भारी-भरकम किताबों का बोझ है। इंटरनेट के तार पर झूलता अभिभावक का आभासी मन बच्चे को चांद-सितारे छुआने की परिकल्पना में डोल रहा है। बिना यह सोचे-समझे कि यह उसकी पहुंच में है या नहीं।
चकाचौंध वाला करियर, ऊंची तनख्वाह या एक पल में करोड़ों जुटाने के ख्वाब ने भारतीय अभिभावकों को जरूरत से ज्यादा सतर्क कर दिया है। वे सजग हैं, चौकन्ने हैं कि कहीं उनका ‘बाल बुद्ध’ चारों ओर फैले आसमान, गुनगुनाते पंछी, धूल में बिखरे पुराने खेलों में न उलझ जाए। कहीं वह घर में आए अतिथि से प्रगाढ़ता न बढ़ा ले। सामाजिक होना उसके भविष्य के लिए अत्यंत घातक हो सकता है। वे चतुराई से एक ‘लक्ष्मण रेखा’ उसके इर्द-गिर्द खींच देते हैं।
बाल जीवन पूरी तरह मनोवैज्ञानिक समस्याओं से भर गया है। जब बच्चा सिर उठाकर देखता है तो पाता है कि उसका बचपन न जाने कहां गुम हो गया है। किताबों की भीड़ हमेशा घेरे रहती है। समाज बचपन से ही वर्गभेद कर देता है। अच्छे नंबर, अच्छा पद कुछ बच्चों को विशिष्ट यानी आदर्श प्रतीक बना देता है। अभिभावक भी उनके एक-एक नंबर के लिए इतना चिंतित रहते हैं कि अगर एक नंबर कहीं गलत चला गया तो समूचा परिवार अवसाद में आ जाता है।
दूसरे बच्चों से तुलना अभिभावकों का एक आम हथियार हैं। इन सबके फलस्वरूप क्रोध, चिंता, अवसाद, अधैर्य, बेचैनी आदि उनके व्यक्तित्व का अभिन्न अंग बन जाता है। फिर थोड़ा होश संभालते हैं तो पाते हैं कि बड़ी महत्त्वाकांक्षाओं, उम्मीदों के बोझ के तले बच्चों का ऐसा वर्ग खड़ा हो गया है जो जरा-सा भी दबाव नहीं सह पाता। चमकते-दमकता करियर न मिल पाए तो उन्हें जीवन व्यर्थ लगने लगता है। बच्चों की परवरिश हरदम प्रतिस्पर्धात्मक मिजाज में रहती है।
मोबाइल या स्मार्टफोन की आभासी दुनिया भी न केवल बच्चों का समय खराब करती है, बल्कि उसे वास्तविकता से दूर ले जाकर एक ऐसी जगह खड़ा कर देती है जो उसके सपनों में तो होती है, पर मेहनत न करने के कारण यथार्थ में नहीं घट पाती। इसी कारण अब बच्चों के परवरिश के मायने बदलने चाहिए। बच्चे सहज, सरल बन सके। प्रकृति के निकट हों। खेल, ध्यान और योग का जीवन में समावेश हो। उन्हें अच्छी किताबें पढ़ने की आदत भी डालनी चाहिए।
एक स्थान नैसर्गिक शौक के लिए अवश्य हो, पर उसे व्यावसायिक प्रतिबद्धता से नहीं जोड़ना चाहिए। अवसाद के क्षणों में अभिरुचियां ही आत्मिक रूप से संबल प्रदान करती हैं। बच्चे को अपना करियर अपनी क्षमता के अनुसार निर्धारित करने का अधिकार भी होना चाहिए। कहने का आशय यह कि थोड़ा बच्चों को चांद-सितारे छूने दिया जाए… बहती बयार-सा उन्मुक्त झूमने दिया जाए… पंछी का कलरव कानों में पड़ने दें।