राकेश सोहम्
शहर में आयोजित एक सम्मान समारोह में अलग-अलग जगहों से लोग आए थे। उनमें ज्यादातर लिखने-पढ़ने वाले थे। वहां कुछ ही लोग ऐसे थे जो एक दूसरे को व्यक्तिगत रूप से जानते-पहचानते थे। बाकी सोशल मीडिया के किसी न किसी माध्यम से आपस में जुड़े थे। उनमें फेसबुक, वाट्सऐप या इंस्टाग्राम के माध्यम से पहचान स्थापित हो चुकी थी।
कुछ की सोशल मीडिया के स्तर पर पक्की मित्रता भी थी, क्योंकि वे एक दूसरे की उपलब्धियों पर अक्सर टिप्पणी करते रहते थे। हैरानी की बात तब ज्यादा सामने आई, जब ऐसे लोग भी एक दूसरे के सामने होने के बावजूद मुश्किल से पहचान पा रहे थे। दरअसल, सोशल मीडिया पर साझा छवियों के माध्यम से लोग अपने मित्रों को जैसा जानते-पहचानते थे, वे वैसे दिखते नहीं थे! वे तस्वीरों में कैद छवियों से अलग थे। इसलिए लोग दिक्कत में थे।
कुछ समय पहले करीब चार दशक पुराने परिचित ने एक अभिनव मिलन समारोह आयोजित किया। सभी सहपाठियों को सपरिवार आमंत्रित किया गया था। वाट्सऐप समूह के माध्यम से एक सूचना प्राथमिकता से रखी गई थी कि सभी मित्रों को अपने दो ताजा छाया चित्र साझा करने होंगे। पहली केवल चेहरे की स्पष्ट तस्वीर और दूसरी पूरे कद की, ताकि मित्रों को पहचानने में असुविधा न हो। दरअसल, छवियां वास्तविकता के लिए कभी पूरी नहीं पड़तीं।
जब लोग छवियों की कैद से बाहर निकलते हैं तो पहचाने नहीं जाते। जैसे कोई कैदी जेल से बाहर निकलता है तो लोग सहज ही उसे पहचान नहीं पाते। असल में व्यक्ति की पूरी पहचान उसके चेहरे-मोहरे, कद-काठी, हाव-भाव, बोल-चाल और चाल-चलन से निर्धारित होती है। सोशल मीडिया के चलन में आने के बाद से दुनिया में जान-पहचान का दायरा बढ़ा है, लेकिन सर्वाधिक जान-पहचान केवल चेहरे-मोहरे पर आधारित है।
सोशल मीडिया पर तस्वीरों में कैद खूबसूरत चेहरों के कारण सोशल-मीडियाई दोस्ती भी खूब गुल खिला रही है। यह दोस्ती न केवल प्रेम में, बल्कि प्रेम-विवाह तक भी पहुंच रही है। हालांकि मात्र चेहरे की पहचान व्यक्ति की पूरी पहचान नहीं होती। विवाह को स्थायित्व प्रदान करने के लिए आपसी पहचान की प्रगाढ़ता को जरूरी माना गया है।
हालांकि आधुनिक जीवन शैली ने इसके कुछ रास्ते भी खोजे हैं। कुछ समय पहले ‘डेटिंग’ प्रचलन में आया। दो व्यक्ति दिन का कुछ समय साथ-साथ अकेले में बिताते हैं, ताकि एक-दूसरे को ठीक से पहचान सकें। विवाह के टिके रहने में फिर भी समस्या आई। इसके बाद ‘लिव-इन-रिलेशनसिप’ यानी ‘सहजीवन’ अस्तित्व में आया। इसमें युवक और युवती कुछ दिन या कुछ महीने या कई-कई साल तक एक ही घर में एक साथ पति पत्नी की तरह रहते हैं। यह सुनिश्चित करते हैं कि वे एक-दूसरे के साथ विवाह के बंधन में पूरा जीवन गुजार सकेंगे या नहीं। तब भी समुचित परिणाम सामने नहीं आ रहे हैं। पहचान तब भी अधूरी है।
चेहरे-मोहरे के अलावा बाकी पहचान निर्धारित करने वाले तत्त्वों का लाभ फिल्मी परदे पर दिखाई देने वाले अभिनेता और अभिनेत्रियों को मिलता रहा है। दर्शक इनको गहराई से पहचानने लगते हैं। वे उन्हें बार-बार अनेक कोण से देखते-सुनते हैं। इसलिए उन्हें उनकी आंख, नाक, ठोंड़ी या होंठो की बनावट मात्र से पहचान लेते हैं। तस्वीर सामने न हो, तब भी उनकी आवाज, अंदाज या चाल-ढाल से पहचान लेते हैं।
बावजूद इसके पहचान अधूरी ही रहती है। एक परिचित एक अभिनेता के बड़े प्रशंसक हैं। किसी काम से मुंबई मायानगरी गए थे। एक व्यावसायिक परिसर में खरीदारी के दौरान उनका प्रिय अभिनेता ठीक उनके सामने था, लेकिन वे उसे पहचान नहीं सके। जब कुछ लोगों की भीड़ ने उस अभिनेता को घेर लिया, तब उन्हें अहसास हुआ। लेकिन तब तक देर हो चुकी थी।
अभिनेता के इर्द-गिर्द इतनी भीड़ जमा हो गई थी कि लाख कोशिश करने के बावजूद उसके करीब नहीं पहुंच सके। मित्र हंसकर बताते हैं कि उनका प्रिय अभिनेता एक सामान्य व्यक्ति की तरह बहुत छोटा दिखाई दे रहा था, जबकि बड़े पर्दे पर उन्होंने उसे बड़ा ही देखा है। इसलिए पहचानते हुए भी अपने प्रिय अभिनेता को पहचान नहीं सके और व्यक्तिगत मिलने का सुनहरा अवसर खो बैठे।
बहरहाल, असली व्यक्तिगत पहचान का दायरा तस्वीरों या तात्कालिक या छोटी अवधि के लिए मिलने-जुलने के दौरान की पहचान से बहुत बड़ा होता है। बचपन के मित्र बीस-तीस साल के बाद भी जब मिलते हैं तो उन्हें पहचानने में ज्यादा देर नहीं लगती। संबंधों की मजबूती का आधार गहरी व्यक्तिगत पहचान होती है। दुनिया का सबसे बड़ा सच यह भी है कि आदमी की सही पहचान उसके दिल से होती है। यह भी अगर दिल्लगी बन जाए तो जीवन कठिन हो जाता है।