कुछ समय पहले वाट्सऐप पर तलाक देने का एक मामला सामने आया, जिसने एक बार फिर पुरुष वर्चस्व के औजार से महिलाओं की पीड़ा को खुरच दिया। इसमें कोई शक नहीं कि जिसे जीवन-साथी के तौर पर चुना या स्वीकार किया गया होता है, उससे अंतिम तौर पर संबंध तोड़ना जिंदगी का सबसे मुश्किल और जटिल काम होता है। लेकिन कई बार कोई विकल्प नहीं दिखता और व्यक्ति को यह कड़वा फैसला लेना पड़ता है। इस मसले पर लोगों के अपने या आसपास के अनुभवों पर आधारित और सामाजिक परंपराओं के मुताबिक अलग-अलग विचार होते हैं। यह उन दो लोगों के बीच की बात है जो वैवाहिक बंधन में तो बंधे, लेकिन वैचारिक या व्यावहारिक मतभेद से उपजे हालात की वजह से अलग होने का फैसला करते हैं। यों जीवन भर की त्रासदी को झेलने से बेहतर है कि एक बार कड़ा फैसला ले लिया जाए जो दोनों पक्षों को सहजता से जीने का हक दे।

अगर बात सिर्फ उन दो लोगों के बीच हो जो वैवाहिक बंधन में बंधे थे, पर अब अलग होना चाहते है तो नियम सबके लिए एक होना चाहिए। लेकिन ऐसा नहीं है। वर्ग, परिवार और धर्म के मुताबिक कई नियम अलग-अलग स्वरूप में होते हैं। वर्ग और परिवार का जिक्र इसलिए कि सामान्य मध्यवर्गीय परिवार में तलाक को सीधे सामाजिक प्रतिष्ठा से जोड़ कर देखा जाता है और धर्म के मामले में अक्सर भिन्न मतों के हिसाब से इस तरह के नियम-कायदे में फर्क देखा जाता है। लेकिन एक बात समान है कि तलाक के मसले पर कानून से लेकर व्यवहार तक में नियम महिलाओं के लिए काफी तल्ख हैं। हालांकि कहा जरूर जाता है कि कानून महिलाओं के हक में काम करता है, पर व्यवहार में स्थिति इसके बरक्स है।

मुसलिम समाज में जुबानी तलाक को आमतौर पर एकतरफा फैसले के तौर पर देखा जाता है और यह एक तरह से पुरुष वर्चस्व को स्थापित करता है। व्यावहारिक रूप में कुछ ऐसे ही हालात हिंदू परिवारों में भी है। अगर वैवाहिक जीवन त्रासद हो गया हो तो महिला के लिए अपनी ओर से उस रिश्ते को खत्म करना आसान नहीं है। कानूनी सहारा लेकर अगर कोई महिला अपनी ओर से ऐसे कदम उठाती भी है तो उसके लिए समाज और परिवार से जुड़ी ऐसी भावनात्मक यातनाएं हैं कि पचास प्रतिशत महिलाएं हालात से समझौता करके अपनी जिंदगी को बस झेलती भर हैं।

जिन महिलाओं के साथ मारपीट भी होती है, वे पुरुष प्रधान समाज के बनाए नियमों के इतर जाने का साहस नहीं कर पातीं।
लगभग छह महीने पहले आई एक खबर के मुताबिक गैरसरकारी संस्था भारतीय मुसलिम महिला आंदोलन ने एक सर्वेक्षण में पाया कि अब मुसलिम महिलाएं तलाक, एक से ज्यादा शादी और घरेलू हिंसा जैसे मसलों पर खुल कर अपने विचार रख रही हैं और दबी जुबान से ही सही, बराबरी का हक भी मांग रही हैं। सर्वे के मुताबिक देश की बानवे फीसद मुसलिम महिलाओं का मानना है कि तीन बार तलाक बोलने से रिश्ता खत्म होने का नियम एकतरफा है और इस पर रोक लगनी चाहिए। सर्वे में शामिल पचपन फीसदी औरतों की शादी अठारह साल से कम उम्र में हुई और चौवालीस फीसदी महिलाओं के पास अपना निकाहनामा तक नहीं है। जुबानी तलाक के विरोध की एक बड़ी वजह यह है कि कामकाजी या स्वनिर्भर नहीं होने की हालत में महिला का जीवन संकट से घिर जाता है।

हिंदू हो या मुसलिम परिवार, दोनों ही जगह महिलाओं को पुरुष मानसिकता के दंश से अलग एक राह बनाना बेहद कठिन होता है। वे महिलाएं हजारों सवाल और परेशानियों से जूझती हैं जो पुरुषों की ज्यादतियों को नहीं बर्दाश्त करते हुए अपने असंतुष्ट वैवाहिक जीवन को खत्म कर नई राह पर हैं। आम लोगों के बीच ऐसी महिलाओं के लिए जो धारणाएं बनती हैं, वे ये होती हैं कि ‘उसके पति ने उसे छोड़ दिया है’। जबकि स्थिति इसके विपरीत भी हो सकती है कि खुद महिला ने उस संबंध को खत्म करने का फैसला लिया हो। भारत में विभिन्न धर्म के अपने नियम-कानून और आजादी आदर्शों में तो समान है, पर व्यवहार में स्थिति भिन्न है।

दरअसल, अशिक्षा एक ऐसा कारण है, जिसने महिलाओं को कमजोर किया है। अपने अधिकार को लेकर जानकारी नहीं होना और अशिक्षित होने के चलते रोजमर्रा की जिंदगी के लिए दूसरों पर निर्भरता की स्थिति इस तरह की कमजोरी को और गहरा करता है। पहले से ही पितृसत्तात्मक मानस में जीती ऐसी महिलाएं जुल्म बर्दाश्त करना अपनी नियति मान लेती हैं। यों प्रवृत्ति और व्यवहार से स्त्री को सहनशील और हर परिस्थिति को बर्दाश्त करने वाली कहा गया है, लेकिन याद रहने लायक नाम उन्हीं का होता है, जिन्होंने असहनीय परिस्थितियों के खिलाफ खड़ा होकर अपने लिए नई राह बनाई। इतिहास कहता है कि वक्त के साथ जब किसी तर्कहीन और असामाजिक विषय पर आवाज बुलंद हुई है तो बदलाव हुए हैं।