अनीता यादव
आज हम गांव के खेतों की मेंड़ और कच्ची पगडंडी मापते हुए काफी दूर निकल आए हैं। कच्ची पगडंडियों का स्थान शहर के बीचोंबीच बने पार्क के खड़ंजेनुमा पटरी ने ले ली। मापी गई इस दूरी को भले ही भौतिक विकास यात्रा में प्राप्त सफलता के तौर पर देख सकते हैं, जहां सुख-सुविधाओं का बोलबाला है। जहां बात मानसिक और शारीरिक विकास की आती है तो यह दूरी बाधा स्वरूप ही दिखती है। बड़ी-बड़ी इमारतों के बीच बने छोटे-छोटे पार्क शाम होते ही भीड़ से पट जाते हैं।
मानसिक शांति की खोज में आए बुजुर्गों से लेकर शरीर की चर्बी को पिघलाने की कोशिश करते पुरुषों के अलावा कामकाजी और घरेलू महिलाएं भी घूमती देखी जा सकती हैं। पिछले दिनों पार्क के एक कोने में बैठ कर चारों ओर नजर दौड़ाई तो भान हुआ कि लोग आखिर कब तक शहरी कालोनियों के दड़बेनुमा घरों में कैद रह सकते हैं! मेरी नजर घूमते हुए बारह से पंद्रह वर्ष तक के लड़कों के उस समूह पर ठहर गई जो दो टीम में विभक्त होकर क्रिकेट खेल रहा था। क्रिकेट के प्रति जुनून को हम सब जानते-समझते हैं।
वह पार्क बहुत बड़ा नहीं था। अमूमन इसी आकार के पार्क हर शहरीकृत कालोनी का हिस्सा होते हैं जिसकी देखरेख माली करते हैं। इन पार्कों में गांव की सड़कों के किनारे लगे आम, जामुन, अमरूद, पीपल या नीम के पेड़ नहीं, बल्कि फूल और विदेशी पौधों की लहराती किस्में होती हैं, जिन्हें छूने की भी मनाही होती है। ये पौधे मात्र सजावट का काम करते हैं।
ऐसे संरक्षित क्षेत्र में खेलते उन बच्चों के मन- मस्तिष्क पर एक तरफ माली का डर हावी रहता है तो दूसरी ओर पार्क में बैठे अन्य लोगों को गेंद लगने का भी डर रहता है। गेंद किसी से टकरा न जाए, इसके लिए उन बालकों ने अपने कदम माप कर चौके और छक्के को निश्चित कर रखा था। छक्के के लिए निश्चित की गई दूरी से आगे गेंद जाने पर बल्लेबाज को आउट करार दिया जाना इस बात का संकेत था कि बच्चे नहीं चाहते कि बल्लेबाज का बैट गेंद पर तेज प्रहार करे! खेल रहे बच्चों में भले ही खेल भावना थी, लेकिन खेल के प्रति रोमांच कतई नहीं था। इस रोमांच की जगह एक अनजाना भय था। आखिर खेल को इतना सीमित कर कर खेलना कैसे रोमांच पैदा कर सकता हैं?
गेंद उठाने आए एक बच्चे से जब यों ही पूछा कि कि यहां क्यों खेल रहे हो, तो बच्चे के मासूम से जवाब ने मुझे लाजवाब कर दिया। उसका कहना था कि इसके अलावा हमारे पास क्रिकेट खेलने की और कोई जगह नहीं है। गली में दुकानदार नहीं खेलने देते। उसका जवाब सुनकर मैं सोच में पड़ गई। उस बच्चे ने क्या गलत कहा? वाकई शहरी परिवेश में बच्चों के खेलने के लिए स्थान है ही कहां? शहर के सिमटे जीवन को और अधिक सिमटते देख मन विचलित और परेशान हुआ। मन में बड़ा सवाल था- भविष्य के क्रिकेट मैदान पर आने वाले यह नौनिहाल क्या इस तरह से खेल कर सचिन या युवराज बनने की यात्रा कर पाएंगे?
मन में उठे सवाल के जवाब में अगर कोई यह कहे कि शहरों में बड़ी-बड़ी क्रिकेट अकादमी है, जहां खेल के अभ्यास के साथ-साथ खाना और अन्य सुविधाएं उपलब्ध कराई जाती हैं। यहां आकर बच्चा निरंतर अभ्यास और विशेषज्ञ की सलाह से खेल में अपना भविष्य निर्मित कर सकता है। लेकिन क्या इसके बदले अकादमी एक मोटी रकम नहीं वसूलती? एक आम मध्यवर्गीय परिवार का बच्चा खेल भावना रखते हुए भी इन अकादमियों का हिस्सा नहीं बन सकता, क्योंकि वह इन अकादमियों की मोटी फीस दे पाने में असमर्थ होता है।
जीवन में खेलों के महत्त्व को कौन नहीं जानता? किसे नहीं मालूम कि खेल मन को प्रसन्नता देने के साथ-साथ स्फूर्ति, स्वास्थ्य और मानवीय गुणों का विकास करता है। धैर्य, साहस, सहिष्णुता जैसे गुण इन्हीं खेलों की बदौलत विकसित होते हैं। इस रूप में अगर शहरी जीवन हमारे शारीरिक और मानसिक विकास में बाधक है तो यह जीवन कब तक? क्या अब समय नहीं आ गया कि हमें अन्य विकल्पों पर सोचना चाहिए?
बालक ही क्यों, युवा वर्ग जो नौकरियों में जाने के लिए खुद को शारीरिक रूप से सेहतमंद और कसौटी पर खरा उतरने वाली किसी परीक्षा के लिए तैयार करना चाहता है तो उसके लिए भी उसे इन पार्कों का सहारा नहीं है। ऐसे में वह उन सड़कों का सहारा लेता है, जिन पर लगातार तेजरफ्तार वाहन चलते रहते हैं। सुबह-शाम इन सड़कों के किनारे प्रदूषण की परत तले युवा खेल वाले जूते पहने दौड़ते देखे जा सकते हैं।
प्रदूषण से सराबोर उन सड़कों पर क्या वाकई फिटनेस संभव हो सकती है? आज हमने विकास का पैमाना केवल भौतिक विकास को मान लिया है और जिसका खामियाजा हम मानसिक तनाव, संत्रास, अकेलेपन, अजनबियत के रूप में भुगत रहे हैं। भौतिक विकास के साथ मानसिक और शारीरिक विकास को जब तक साथ लेकर नहीं चला जाएगा, तब तक पूर्ण विकास की संकल्पना असंभव है।
