रजनीश जैन

अक्सर जब हम खबरें पढ़ते हैं कि देश के किसी भाग में गिद्धों की संख्या एकदम कम हो गई है और वे लुप्त होने की कगार पर पहुंच गए हैं, तो बरबस बचपन के दिन याद आ जाते हैं, जब किसी गिद्ध को आसमान में हवाई जहाज की मानिंद उड़ते देखना उल्लास से भर देता था। इसी प्रकार किसी दिन जब पहले पेज पर पढ़ने को मिलता है कि किसी खास अभयारण्य में बाघों की संख्या बढ़ रही है।

तो अचानक ही वे आंकड़े दिमाग में कौंध जाते हैं, जो बताते हैं कि बीसवीं सदी की शुरुआत में उनकी संख्या एक लाख थी, जो अब घटते-घटते चार हजार पर आ गई है। कस्बों में रहने वाले अधिकतर मित्र इस शिकायत को दोहराते मिल जाते हैं कि सुबह चहकने वाली गौरैया या छत की मुंडेर पर कांव-कांव करते कौवे अब उतने नजर नहीं आते, जितने दस बरस पहले होते थे।

पर्यावरण पर केंद्रित एक पत्रिका ने रहस्योद्घटन किया है कि दुनिया में जुगनुओं की संख्या तेजी से घट रही है। हममें से ज्यादातर ने बचपन में जुगनू को पकड़ कर अपनी हथेली पर रखा होगा! डायनासोर युग से लेकर अभी तक जुगनू अंटार्टिका को छोड़ कर दुनिया के हरेक भाग में पाए जाते रहे हैं। लेकिन अब उनकी आबादी सिकुड़ रही है। बहुत-से क्षेत्र तो ऐसे हैं, जहां पिछले दस बरस से उनका अस्तित्व ही खत्म हो गया है। यही हाल मधुमक्खियों का हो रहा है। शोध बताते हैं कि यूरोपीय मधुमक्खियों की संख्या में तेजी से कमी आ रही है।

फिल्म प्रशंसकों को एनिमेटेड हॉलीवुड फिल्म ‘द बी’ अवश्य याद होगी, जिसमें यह कल्पना की गई थी कि अगर मधुमक्खियां फूलों से पराग कण चुनने का काम बंद कर दें तो मनुष्य का जीवन किस तरह खतरे में पड़ सकता है। लेकिन क्या यह सिर्फ कल्पना की बात है? यह एक हकीकत है कि दुनिया में बहुत सारे ऐसे पशु-पक्षी हैं, जिनकी जीवन शैली मनुष्यों का जीवन न केवल आसान बनाती, बल्कि उनका होना मनुष्य के जीवन से अभिन्न रूप से जुड़ा है।

प्रकृति पर नजर रखने वाली एक पत्रिका ने दो बरस पहले एक शोध प्रकाशित किया था कि मनुष्य ने 1970 से 2014 के पैंतालीस वर्षों में वह मुकाम हासिल कर लिया है, जिसकी कल्पना भी नहीं की गई थी। इन वर्षों में धरती से साठ प्रतिशत वन्य जीव, जंतु, कीट-पतंगे लुप्त हो चुके हैं। अमेजन के जंगलों का बीस प्रतिशत भाग महज पिछले पचास वर्षों में आबादी का ठिकाना बन गया है।

तीन करोड़ वर्षों में समुद्र इतना तेजाबी नहीं हुआ जितना इस दौरान हुआ है। शोधकर्ता के कहने का आशय था कि इस धरा पर मनुष्य की मौजूदगी बीस लाख वर्षों से है। लेकिन बढ़ती आबादी, शहरीकरण, जंगलों का सिकुड़ते, समुद्र का दूषित होते जाना इस विलुप्ति की वजह बना है। दरअसल, धरती के पहले मनुष्य ने अफ्रीका से चलना शुरू किया था। उसकी यात्रा का एकमात्र उद्देश्य उस समय भोजन था। भोजन की तलाश में चलते हुए किस तरह वह वन्य जीवन को ही उदरस्थ करता गया, यह बात अब विकराल रूप लेकर संपूर्ण मानव समाज की दहलीज पर आ खड़ी है।

हम कल्पना करके देखें कि अगर किसी चिड़ियाघर के आधे जानवर एक माह में मर जाएं तो यह देश और समूची दुनिया के लिए कितनी बड़ी खबर होगी। लेकिन हमारे शहरों के बाहर यही हो रहा है। अपने अर्थतंत्र के उतार-चढ़ाव मापने के सूचकांक हमने विकसित कर लिए, लेकिन अपने पारिस्थितिकी तंत्र में आ रहे भारी बदलाव को हम जानबूझ कर नजरअंदाज करते रहे हैं। इसका नुकसान आखिर किसे होगा? इन सबकी वजह से क्या हम रोजमर्रा की जिंदगी में हो चुके नुकसानों पर कभी गौर कर पाते हैं?

इतिहास का अनुभव यही रहा है कि सुरक्षित घरों में रहा मनुष्य तब तक कोई ठोस कदम नहीं उठाता जब तक कि बाढ़ का पानी उसके घरो में प्रवेश नहीं कर जाता। कहने को बीते सौ बरसों में मानव ने विकास के हिमालयी आयाम खड़े किए हैं, लेकिन यह विकास पर्यावरण के विनाश की नींव पर हुआ है, यह सच अधिकांश लोग आज भी स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं।

धरती का मात्र पच्चीस प्रतिशत भाग ऐसा बचा है, जहां मनुष्य की गतिविधि न के बराबर है। आशंका व्यक्त की जा रही है कि सन 2050 में घट कर यह क्षेत्र दस प्रतिशत रह जाने वाला है। पृथ्वी की अपनी अलार्म घड़ी है, जो पूरी मानव जाति को जगाने की कोशिश कर रही है। अब हम अगर अब भी नहीं जागे तो आने वाली पीढ़ी को कैसी बदसूरत दुनिया विरासत में देकर जाएंगे, यह सोच कर देखिए। शायद इसी से कुछ फर्क पड़ने लगे।