सारागढ़ी की लड़ाई यानि भारतीय सैनिकों के अदम्य साहस और कभी हार न मानने वाले जज्बे की कहानी। वाकया हैरत में डालने वाला है और हो भी क्यों ना। आठ हजार से ज्यादा अफगानों को 21 सैनिकों ने धूल चटा दी थी। किले पर कब्जे के लिए उन्हें घंटों तरसाया। हवलदार ईशर सिंह के नेतृत्व में सैनिकों ने अपनी अंतिम सांस तक लड़ाई लड़ी, जिसमें 200 अफगानों की मौत हो गई जबकि लगभग 600 घायल हुए।
सारागढ़ी की लड़ाई की आज 124वीं वर्षगांठ है। इस लड़ाई ने देश और विदेश में कई सेनाओं को प्रेरित किया है। लड़ाई सामरिक रूप से बेहद महत्वपूर्ण थी। सारागढ़ी फोर्ट लॉकहार्ट और फोर्ट गुलिस्तान के बीच कम्युनिकेशन टावर था। ये दोनों किले अब पाकिस्तान में हैं। इतिहासकार कहते हैं कि सारागढ़ी में आमतौर पर 40 सैनिकों की एक प्लाटून होती थी, लेकिन जिस दिन ये युद्ध लड़ा गया उस दिन वहां केवल 21 सैनिक थे।
एक सैनिक ने धूल का गुबार देखकर महसूस किया कि किले की ओर एक बड़ी सेना बढ़ रही है। अफगान सैनिक दोनों किलों के बीच संचार की लाइनों को काटकर अलग-थलग करना चाहते थे। सिपाही गुरमुख सिंह ने कमांडिंग ऑफिसर को मोर्स कोड के माध्यम से एक संदेश भेजा। उन्हें बताया गया कि दुश्मन नजदीक आ रहे हैं। मदद के लिए और सैनिकों को भेजने की गुजारिश की गई। अंग्रेज कमांडर ने अपने संदेश में उनसे अपनी पोजिशन होल्ड करने को कहा।
सिपाही गुरमुख सिंह ने यह संदेश प्लाटून कमांडर हवलदार ईशर सिंह को दिया। एक ब्रिटिश अधिकारी ने बताया कि सैनिकों की संख्या न केवल कम थी, बल्कि उनके पास प्रति व्यक्ति लगभग 400 राउंड के साथ सीमित गोला-बारूद था। सिग्नलमैन गुरमुख सिंह उस दिन तीन लोगों का काम अकेले कर रहा था। 21 सैनिकों में गुरमुख सिंह सबसे कम उम्र का था। 47 वर्षीय नायक लाल सिंह सबसे उम्रदराज थे।
इतिहास में दर्ज है कि कम तादाद के बावजूद 21 सैनिकों ने जोशोखरोश के साथ अफगानों का मुकाबला किया। लेकिन सात घंटे की लड़ाई में कई सैनिक हताहत हो गए तो जो बचे थे वो इतने जख्मी थे कि पूरी तरह से लाचार हो गए थे। बावजूद इसके नायक लाल सिंह गंभीर रूप से घायल होने के बाद भी बिस्तर पर लेटकर लगातार फायरिंग कर अफगान सैनिकों को हलाल करते रहे। अपने सैनिकों को एक के बाद एक करके गिरते देख 23 साल के गुरमुख ने अपना अंतिम संदेश भेजकर खुद बंदूक उठा ली। उन्होंने कई पठानों को ढेर कर दिया।
पंजाब के सीएम कैप्टन अमरिन्दर सिंह ने अपनी किताब में युद्ध के आखिरी घंटे का वर्णन करते हुए लिखा है कि सारागढ़ी के सैनिकों को पता था कि यह उनका आखिरी दिन है, फिर भी वे नहीं झुके। 21 सैनिकों की शहादत को सलाम करते हुए अमरिन्दर सरकार ने 12 सितंबर को अवकाश घोषित किया है। उनकी किताब में दर्ज है कि हवलदार ईशर सिंह का जन्म जगराओं के पास एक गांव में हुआ था। 1887 में 36th सिख्स के गठन के तुरंत बाद ईशर को इसमें शामिल किया गया। वह करीब 40 साल के थे जब उन्हें सारागढ़ी पोस्ट की स्वतंत्र कमान दी गई थी। वह शादीशुदा थे पर निसंतान।
21 सैनिकों के परिवारों का पता लगाने वाले सारागढ़ी फाउंडेशन के अध्यक्ष गुरिंदरपाल सिंह जोसन, कहते है कि जमीन का एक बड़ा हिस्सा मिलने के बावजूद, ईशर के परिवार को उनकी मृत्यु के बाद कठिन समय देखना पड़ा। उसकी पत्नी को उसके भाई ने मार डाला, जिसे बाद में काला पानी (अंडमान और निकोबार) भेज दिया गया। हालांकि लड़ाई में 22 वां सैनिक भी था। पंजाब के सीएम ने उसका नाम दाद बताया है। किताब में लिखा है कि वैसे वह स्वीपर था, लेकिन नौशेरा (पाकिस्तान) के इस जाबांज ने मरने से पहले पांच अफगानों को मारकर एक सैनिक का जज्बा दिखाया।