अशोक उपाध्याय

भारत में विश्व की सबसे बड़ी औद्योगिक दुर्घटना तीन दिसंबर 1984 को भोपाल में हुई, जिसमें लगभग आठ हजार लोग जहरीली गैस से मर गए और इससे ज्यादा उसके बाद हुई गंभीर बीमारियों से। एक अनुमान के अनुसार पांच लाख से अधिक लोगों पर इस जहरीली गैस का दुष्प्रभाव हुआ। इस दुर्घटना के बाद क्या हुआ, वह सब इतिहास में दर्ज है। जो दर्ज नहीं है, वह यह है कि जितनी बड़ी दुर्घटना आज से तीन दशक पहले हुई थी, आज फिर हम उसी तरह के या उससे भी बड़े हादसे के मुहाने पर बैठे हैं। विकास की अंधी दौड़ में शामिल सरकार ने शायद फैसला कर लिया है कि अब कारखानों पर सरकारी नियंत्रण नहीं होगा। इंस्पेक्टर की व्यवस्था समाप्त कर दी जाएगी। उद्योगपति जो घोषणा करेगा कि उसके यहां नियमों का पालन हो रहा है, उसे ही वास्तविक मान लिया जाएगा।

भोपाल हादसे से लेकर आज तक किसी भी सरकार ने यह जानने की कोशिश नहीं की कि कैसे कोर्ट गेस्ट हाउस में लगाई गई और कैसे एंडरसन को जमानत दे दी गई। एंडरसन को कैसे, किसके कहने पर या क्यों छोड़ा गया, इसकी खोज आज तक नहीं की गई और यह अब भी रहस्य है। उसके बाद जो हुआ, वह और भी शर्मनाक है। न्याय के नाम पर सरकार ने गैस पीड़ितों की ओर से एक पक्ष बन कर सैंतालीस करोड़ डॉलर में समझौता कर कर लिया, जिसमें उस आपराधिक कृत्य के शिकार होने के एवज में मुआवजा भी शामिल था। देश की न्याय व्यवस्था ने पच्चीस साल बाद यूनियन कार्बाइड के केवल आठ लोगों को अधिकतम दो साल की सजा सुनाई और उसमें भी वे तुरंत जमानत लेकर बाहर आ गए। पूरी सुनवाई के दौरान एंडरसन कोर्ट में नहीं आया। भारत की अदालत ने एंडरसन को कितने समन भेजे, मगर उन पर तामील नहीं हुआ। यहां तक कि एंडरसन को भगोड़ा भी घोषित कर दिया गया। समन के बावजूद सरकार एंडरसन का प्रत्यर्पण नहीं करवा सकी। सच यह है कि भारत सरकार ने उसे भारत लाने के प्रभावी प्रयास ही नहीं किए, वह शायद केवल लोक-लाज के लिए डाकिए की तरह समन को अमेरिका भिजवाती रही। कालांतर में यूनियन कार्बाइड को अमेरिका की एक कंपनी डाव केमिकल ने खरीद लिया और वह भारत में कीटनाशक बना और बेच रही है। विदेशी पूंजी निवेश के लिए लालायित सरकार को देश में आते हुए डॉलर के सामने इसके अपराध नहीं दिखते। एंडरसन एक बार खुद भारत आया था तो उसे हवाई जहाज में बैठा कर देश से बाहर निकल जाने दिया गया। दूसरी ओर, अमेरिका है जो सद्दाम हुसैन और ओसामा बिन लादेन को खोज कर और मार कर ही दम लेता है। वही अमेरिका एंडरसन को भारत के हवाले नहीं करता है।

दोनों देशों में लोकतंत्र है, न्यायपालिका है। मगर सच यह है कि दोनों देशों का लोकतंत्र उद्योगपतियों के पैसे और प्रभाव से चलता है और उन्हीं के हितों का संरक्षण करता है। ऐसे में यह सोचना कि ये सरकारें एंडरसन को गिरफ्तार करतीं और सजा देतीं, शायद एक कल्पना ही है। एंडरसन बानवे साल की उम्र में सहज मौत मरा। उसे अपराधी की तरह न्यायालय में उपस्थित होने से बचाने वाले लोग और तंत्र आज भी मौजूद है। लेकिन हम हैं कि ऐसे लोगों और तंत्र को पहचानने से भी इनकार करते हैं। एक दिन हम भी मर जाएंगे। दोषी एंडरसन के अलावा हम भी हैं।

 

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