प्रेम प्रकाश
कोरोना महामारी के एक साल से ज्यादा के सफरनामे ने दुनिया को बदलकर रख दिया है। इस महामारी ने विकास की सरकारी-असरकारी समझ पर तो सवाल खड़ा किया ही है, शहर और गांव की स्थिति को नए सिरे से समझने के लिए मजबूर किया है। भारत में महामारी की पहली लहर में यह दिखा कि शहरों में काम कर रहे गरीबों की हालत यह है कि उन्हें रातोंरात सड़कों पर आ जाना पड़ा।

पूर्णबंदी ने उन्हें इतना मोहताज बना दिया कि वे हजारों किलोमीटर पैदल सफर करके गांव लौटने पर मजबूर हुए। देश के तमाम बड़े शहरों से गांवों की तरफ लौटते मजदूरों के परिवार जिस बेबसी में सड़कों पर, रेलवे स्टेशनों और बस अड्डों पर दिखे, वह पूरा मंजर जहां शहर और संवेदना का शर्मनाक यथार्थ है, वहीं गरीबी उन्मूलन जैसे दावों की तार-तार हुई सच्चाई भी। अब जबकि महामारी की दूसरी लहर से देश जूझ रहा है तो उन गांवों की तरफ सबकी नजर जा रही है जहां संक्रमण और मौत का प्रकोप सबसे ज्यादा है।

आमतौर पर मीडिया भी जिन गांवों की तरफ रुख नहीं करता, वहां से खबरें आ रही हैं कि कैसे लोग स्वास्थ्य सेवा की न्यूनतम उपलब्धता से भी दूर हैं और नीम-पीपल के नीचे कुदरती ‘प्राणवायु’ के भरोसे खाटों पर पड़े हैं। देश के साढ़े छह लाख से ज्यादा गांवों की स्थिति सुधारने के लिए सरकारों ने कुछ नहीं किया, ऐसा नहीं है। खासतौर पर पंचायत राज व्यवस्था लागू होने के बाद गांवों ने स्वावलंबन और सशक्तीकरण का पूरा दौर देखा है। पर संसाधनों की कमी और विकास की मुख्यधारा से गांवों की दूरी कम होने के बजाय बढ़ी है, यह भी प्रामाणिक तथ्य है।

हालात और विकल्प
ऐसे में सवाल यह है कि गांवों की दशा में बेहतरी के लिए क्या किया जा सकता है। इसके लिए वैसे लोगों और संस्थाओं के अनुभव को अहमियत देनी होगी जो देश के विभिन्न हिस्सों में ग्रामीणों के बीच न सिर्फ दशकों से काम कर रहे हैं बल्कि गांवों के जर्जर हालात को लोक पुरुषार्थ में बदलने का यशस्वी प्रयास भी कर रहे हैं। ‘सेंटर फॉर कम्युनिटी इकोनॉमिक्स एंड डेवलपमेंट कंसल्टेंट सोसाइटी’ (सिकोईडिकोन) की सचिव मंजू जोशी को लगता है कि गांवों में शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य सुविधा तक अभी काफी कुछ किए जाने की दरकार है। यह काम बेहतर समझ और योजनागत पहल के साथ जब तक नहीं किया जाएगा, हम गांवों की स्थिति में बड़ा बदलाव नहीं देख सकते।

राजस्थान और मध्य प्रदेश के पांच सौ से ज्यादा गांवों में महिलाओं, बच्चों और किसानों के साथ विभिन्न अभिक्रमों से जुड़ी जोशी को गांव के लोगों की सादगी के साथ उनके लोक पुरुषार्थ पर यकीन है। स्वयं सहायता समूह जैसे महिला सशक्तीकरण के प्रयोग कैसे स्वावलंबन का मॉडल बनते हैं, ये उन्होंने खुद अपने प्रयासों से देखा है। पर उन्हें लगता है कि इस तरह के प्रयोग जब तक विस्तृत और समेकित नहीं होंगे तब तक इनका व्यापक असर गांवों की दशा में सुधार पर नहीं पड़ेगा। खासतौर पर बात करें कोविड-19 जैसी महामारी की तो इससे निपटने के लिए संरचनात्मक सुविधा के अभाव को किसी और रास्ते नहीं पूरा किया जा सकता है।

संरचनात्मक अभाव
गांवों में कोरोना संक्रमण के कारण जिस तरह के हालात पैदा हुए उसमें क्या करना चाहिए, इस चिंता और सवाल से जब सरकार के आला अधिकारी जूझ रहे थे, उसी दौरान कई सकारात्मक पहल भी दिखाई दिए। बिहार के भागलपुर में दशकों से गांधी विचार और अनुभवों के साथ काम कर रहीं डॉ. सुजाता चौधरी नेशनल मूवमेंट फ्रंट (एनएमएफ) की संयोजक हैं। उनको लगता है कि इस समय सबसे पहली जरूरत है कि पीड़ा और संकट की घड़ी में लोग एक-दूसरे का संबल बनें। इस दौरान स्थानीय स्तर पर स्वास्थ्य सेवा से लेकर दूसरी मदद के लिए उन्होंने खुद भी काफी सराहनीय प्रयास किए हैं। गांवों की स्थिति पर बात करते हुए वो इस बात पर खास जोर देती हैं कि विकास गांव पर थोपा नहीं जा सकता है। इसके लिए गांवों के बीच बैठकर, ग्रामीणों के साथ जुड़कर पहल करनी होगी।

अपनी बात को समझाते हुए वो कहती हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य की आधारभूत संरचना निर्भर करती है- प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों और आंगनबाड़ी-आशा कार्यकर्ताओं पर। पर जिस एक बात का ध्यान रखा जाना चाहिए था, वह नहीं रखा गया। स्वास्थ्य केंद्रों के संचालन के लिए साथ ग्रामीणों की सहभागिता को नजरअंदाज किया गया। आलम यह है कि शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य तक की तमाम सुविधाएं स्थानीय जुड़ाव और उत्तरदायित्व के अभाव में दम तोड़ रही हैं। कहीं स्वास्थ्य केंद्र का भवन जर्जर पड़ा है तो कहीं स्कूलों में शिक्षक आने से कतराते हैं।

बजटीय प्रावधान
कोरोना महामारी को लेकर डॉ चौधरी कहती हैं कि आयुष्मान भारत और स्वास्थ्य बीमा जैसी पहल का तब तक कोई मतलब नहीं है जब तक इनके लिए अपेक्षित आधारभूत संरचना ग्रामीण क्षेत्रों में विकसित नहीं होगी। यह संरचनात्मक विकास इसलिए भी जरूरी है क्योंकि गांव-देहात में निजी चिकित्सा जैसी कोई वैकल्पिक व्यवस्था शहरों की तरह नहीं कारगर हो सकती है और यह कोई पूर्वग्रह नहीं बल्कि अनुभवजन्य सच्चाई है। मंजू जोशी की तरह डॉ चौधरी को भी लगता है कि ग्रामीण विकास के लिए सरकार को एक तो बजटीय प्रावधान बढ़ाना चाहिए, दूसरे पंचायत राज व्यवस्था को और सुदृढ़ करने की जरूरत है।

कोरोनाकाल के ही अनुभव को लें तो धन और साधन के वितरण में असंतुलन के कारण हालात ज्यादा बिगड़े। लिहाजा जरूरी है कि पंचायतों का स्वायत्त और संवावलंबी चरित्र सामने आए ताकि वे किसी भी जरूरत के लिए मुखापेक्षी न बनी रहें। विकास की मौजूदा अवधारणा में एक कलईदार फौरीपना है। विकास की समेकित और समावेशी होने की दरकार के साथ ‘स्मार्ट’ जैसा शब्द जुड़ गया है। इस कारण स्मार्ट शहरों की तर्ज पर स्मार्ट गांवों की भी बात होने लगी है। सरकार को भी लगता है विकास का प्रभाव तभी ज्यादा कारगर होगा जब वह स्मार्ट भी हो। पर इस मुद्दे पर ग्रामीण क्षेत्रों में काम करने वाले लोगों की समझ बंटी हुई है।

गांव का होना ‘स्मार्ट’
बिहार की राजधानी पटना से लगे फतुहा में 45 सालों से काम कर रही संस्था समग्र लोक सेवा संस्थान (एसएलएसएस) के सचिव विजय कुमार की उम्र 70 साल के करीब है। कुमार को स्मार्ट गांव जैसी अवधारणा से परहेज नहीं है। वे कहते हैं कि इस दिशा में धैर्यपूर्ण और ठोस तरीके से काम हो तो 5-10 किलोमीटर की दूरी पर एक सुंदर मॉडल बनाया जा सकता है, जिसका असर आसपास के गांवों पर भी पड़ेगा। इस तरह ग्रामीण विकास का एक नया मानचित्र तैयार होगा।

सिकोईडिकोन की मंजू जोशी भी कुमार की राय से सहमत हैं। डॉ. चौधरी को भी गांवों को स्मार्ट बनाने की सोच से कोई परहेज नहीं पर उन्हें यह जरूर लगता है कि इस तरह की पहल का निराशाजनक हश्र देश पहले देख चुका है। जिन शहरों को स्मार्ट बनाया या बताया गया, वहां आधारभूत संरचनात्मक सुधार अपेक्षित तरीके से नहीं हुए हैं।कुछ ऐसी ही राय ग्रामीण मामलों के जानकार अमिताभ भूषण की भी है। अमिताभ ने सामाजिक कार्यों की उच्चतर पढ़ाई पूरी की है और फिलहाल ‘एनईजी-फायर’ नामक संस्था के कार्यक्रम प्रबंधक हैं। अमिताभ को लगता है जिन गांवों में देश ही नहीं बल्कि दुनिया की सबसे कुपोषित आबादी रहती हो, उसे स्मार्ट बनाने से पहले उसकी आधारभूत समस्याओं को दूर करना होगा।

निराशा के बीच उम्मीद
देश के विभिन्न हिस्सों में गांवों के बीच काम कर रही संस्थाओं और उनसे जुड़े लोगों से बात करन से एक बात यह तो साफ होती ही है कि कोरोना महामारी के कारण भले गांवों के जर्जर हालात की चर्चा आज भले ज्यादा हो रही है पर यह स्थिति पहले से रही है। अलबत्ता स्थिति को ज्यादा निराशाजनक इसलिए नहीं मानना चाहिए कि इस देश ने लोक स्वावलंबन की ताकत स्वाधीनता संघर्ष के दौरान भी देखी थी और आज भी यह प्रेरणा बची हुई है। महामारी की बड़ी चुनौती के बीच इसी देश में केरल के वे गांव भी हैं जहां स्वयं सहायता समूह की महिलाओं ने न सिर्फ इस दौरान अपने लिए आर्थिक उपार्जन के विकल्प तलाशे बल्कि अपने-अपने क्षेत्रों में ऑक्सीजन सिलेंडर जैसी सुविधा को समय रहते सुनिश्चित किया।