नीरज प्रियदर्शी

पिछले महीने गणतंत्र दिवस परेड में पहली बार सेना के तीनों अंगों की टुकड़ियों का नेतृत्व करती महिला अधिकारियों और उनकी भागीदारी देख कर अच्छा लगा। यों भारत की महिलाओं ने आज हर क्षेत्र में मेहनत, संघर्ष और काबिलियत के बल पर बहुत प्रगति की है। सेना में भी उन्होंने अपने अधिकारों के लिए लंबी कानूनी लड़ाई लड़ी, तब जाकर उन्हें ये अवसर प्राप्त हुआ है। यों सेना में महिलाओं की भर्ती 1927 से हो रही है, पर 1992 में पहली बार उन्हें शॉर्ट सर्विस कमीशन प्रदान किया गया। वायु सेना और नौसेना में 2008 में ही उन्हें स्थायी सर्विस कमीशन दिया गया, पर थल सेना में अभी तक वे इससे वंचित हैं। जिन सेनाओं में उन्हें स्थायी सर्विस कमीशन दिया गया है, उनमें भी वे केवल सहायक स्टाफ हैं, युद्ध क्षेत्र में उनकी कोई भूमिका नहीं है। हम गणतंत्र दिवस समारोह में महिला सशक्तीकरण के उदाहरण के तौर पर सेना के तीनों अंगों की टुकड़ियों के नेतृत्व का मौका महिलाओं को मिलने पर खुश होते हैं। लेकिन सच यह है कि आज भी सेना के उच्च पदों पर उन्हें स्थायी कमीशन हासिल नहीं है। गौरतलब है कि हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान की महिला फाइटर पायलट आयशा फारूक ने बराबर की क्षमता के साथ युद्धक विमान उड़ा कर दिखाया। क्या हम मानते हैं कि हमारे देश की महिलाएं कमजोर हैं? जबकि महिलाएं यह मौका मांग रही हैं!

भारत में बारह लाख की तादाद वाली थल सेना में महज साढ़े बाईस सौ महिलाएं हैं। वायु सेना के कुल एक लाख चालीस हजार की संख्या में महज ग्यारह सौ और नौसेना के निन्यानवे हजार में केवल चार सौ पैंसठ महिलाएं हैं। संख्या और अनुपात के लिहाज से देखें तो देश की आधी आबादी को सेना में इतनी मामूली भागीदारी हमारी व्यवस्था में पैठे सोच को भी दर्शाता है। इस मुद्दे पर थल सेना का मानना है कि उन्हें पहले उस ग्रामीण पृष्ठभूमि का खयाल रखना होगा, जहां से सेना में ज्यादातर पुरुष सैनिक आते हैं। युद्ध में वे सभी लोग एक महिला अधिकारी के निर्देशों का पालन कैसे कर सकेंगे! यही नहीं, सेना ने सर्वोच्च न्यायालय में भी कहा कि सिद्धांतों मे थल सेना में महिलाओं की भागीदारी अच्छी लग सकती है, मगर व्यवहार में वह काम नहीं कर सकती है; एक अवधारणा के तौर पर भी हमारा समाज युद्धक भूमिकाओं में महिलाओं को देखने के लिए तैयार नहीं है।

महिला अधिकारियों ने सेना में भर्ती और स्थायी सर्विस कमीशन पाने के लिए अदालत का दरवाजा भी खटखटाया। हालांकि अदालत ने महिलाओं को बराबर मानते हुए उन्हें समुचित भागीदारी देने की बात भी कही। महिला अधिकारियों द्वारा 2003 में डाली गई याचिका पर दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा था कि ऐसा कोई कारण नहीं है कि काबिल और समर्थ महिलाओं को पुरुषों के बराबर हकदार नहीं माना जाए। सेना में महिलाओं के साथ इस प्रकार का भेदभाव यह दर्शाता है कि आज भी किस प्रकार हम महिलाओं की क्षमता पर शक करते हैं। यह हमारे समाज और व्यवस्था के सोच और मान्यता का ही नतीजा है कि हम दुर्गा को शक्ति का प्रतीक और किताबों में ऐतिहासिक वीरांगनाओं के उदाहरण देने के बावजूद आज भी उन्हें पुरुषों के मुकाबले कम करके आंकते हैं। अगर यही सोच हमारी सेना में भी देखने में आता है तो उसे कैसे देखा जाए! इस मामले में हम महिला अधिकारियों की मांगों को माने बगैर स्त्री सशक्तीकरण की वास्तविक मिसाल पेश नहीं कर सकते। पुरुषवादी सामाजिक ढांचे के लिए यह एक दर्पण के समान होगा, जिसमें महिला को कमजोर और अक्षम माना जाता है।

 

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