संतोष कुमार
भारतीय उपमहाद्वीप में सिनेमा और क्रिकेट मनोरंजन के प्रमुख साधन हैं। लेकिन इन दोनों में बुनियादी फर्क यह है कि सिनेमा में आमतौर पर वही दिखाया जाता है, जो हम देखना चाहते हैं और क्रिकेट में हमें वह भी देखना पड़ता है जो हम नहीं देखना चाहते। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति के बाद काम की तलाश में लोगों ने शहर का रुख किया। शहरों की आबादी तेजी से बढ़ने लगी। कारखानों में लंबे समय तक काम करने के बाद लोग बीमार पड़ने लगे। अवकाश का कोई समय नहीं होता था। लोगों ने महसूस किया कि सप्ताह में एक छुट््टी का दिन भी होना चाहिए। रंगमंच, पुस्तकालय, मेला और विभिन्न खेलों आदि के माध्यम से लोग अपना मन बहलाने लगे। आधुनिक मनोरंजन के साधनों की शुरुआत होने लगी।
सिनेमा और क्रिकेट पहले वही मनोरंजन के साधन थे। लेकिन आज देश के समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र और राजनीतिशास्त्र में इनका योगदान बढ़ने लगा है। किरदार कहानी से और खिलाड़ी खेल से अधिक महत्त्वपूर्ण हो गया है। विशेषज्ञों का मानना है कि ये दोनों स्थितियां ठीक नहीं हैं। परिवर्तन अवश्यंभावी है। लेकिन महत्त्वपूर्ण यह है कि परिवर्तन का कारक कौन है! परिवर्तन की दशा और दिशा समाज तय कर रहा है या समाज खुद परिवर्तित हो रहा है! परिवर्तन समाज के हक में है या व्यापार के हक में, भारतीय दर्शक इसकी चिंता में कम ही दिखाई देते हैं। अक्सर फिल्मकार कहते हैं कि हम फिल्मों में वही दिखाते हैं, जो लोग देखना चाहते हैं। इस बात की प्रामाणिकता संदेहास्पद है। दरअसल, हम यह तय ही नहीं कर पाते हैं कि हम क्या देखना चाहते हैं। हमारा यह तय न कर पाना उन्हें यह संदेश दे देता है कि हम उनके काम को पसंद करते हैं।
खैर, महेंद्र सिंह धोनी और उनके रिकार्ड के बारे में आज सभी जानते हैं। लेकिन जहां फिल्मकारों ने समझ लिया कि लोग फिल्मों में अपने पसंदीदा कलाकारों को नए रूप में देखने आते हैं, वहीं परदे पर अपनी कहानी पहुंचाने वाले क्रिकेट के सितारे धोनी को यह बात समझ में क्यों नहीं आई और उन्होंने इतनी जल्दी मैदान छोड़ने की घोषणा क्यों कर दी! मनोरंजन के एक साधन के रूप में क्रिकेट में दर्शक अपने हीरो को खेलते देखना चाहते हैं। मैच जीतने से ज्यादा खुशी उन्हें इस बात से होती है कि उनके पसंदीदा खिलाड़ी ने शतक बनाया। हालांकि यह सही है कि हम जल्दी भावुक हो जाते हैं। पल भर में इंसान को ‘भगवान’ का दर्जा दे देते हैं।
लेकिन ऐसा लगता है कि हमारे खिलाड़ी क्रिकेट इसलिए खेलते हैं कि हम इन्हें खेलते हुए देखना चाहते हैं। जिस दिन लोगों के दिल से यह चाहत कम हो गई, वह दिन क्रिकेट के लिए शायद अच्छा नहीं होगा। यह ध्यान रखने की बात है कि आइपीएल प्रतियोगिताओं की तमाम चकाचौंध के बावजूद पिछले कुछ समय से लोगों का क्रिकेट के प्रति आकर्षण पहले के मुकाबले घटा है और लोग कबड्डी जैसे खेलों में भी रुचि दिखाने लगे हैं। अब लोगों का रुझान शायद शतरंज और फुटबॉल जैसे खेलों की ओर भी बढ़े और शायद हम हॉकी को वह सम्मान दिला सकें, जिसकी वह हकदार है। कहते हैं, जब सभ्यता अपने चरम पर पहुंच जाती है तो उसका पतन भी शुरू हो जाता है। तो चरम पर पहुंचे क्रिकेट के बारे में भी शायद यह कहा जा सकता है। आखिर है तो यह मनोरंजन का ही एक साधन!
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