मुहम्मद नवेद अशरफी
हरेक समाज में मनुष्य और उसके आसपास के जीवित और निर्जीव कारक पूर्ण रूप से एक दूसरे से सामंजस्य बनाए रखते हैं। मानव जीवन को संचालित करने वाले मूल्यों, नैतिक बलों और कर्तव्यों का इस सामंजस्य के निर्वाह में महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। इन तत्त्वों की अभिव्यक्ति ही संस्कृति का निर्माण करती है। विद्वानों की मानें तो मनुष्य की भूषणयुक्त यानी सुंदर सम्यक कृति या चेष्टाएं ही संस्कृति हैं। ‘संस्कृति’ और ‘सभ्यता’ दो अलग-अलग शब्द हैं। सभ्यता मानव की ‘भौतिक’ आवश्यकताओं की पूर्ति करती है, जैसे वर्चस्व, दौलत, साम्राज्य आदि। लेकिन ‘संस्कृति’ आत्मा का आहार है, मन को प्रसन्न करने का साधन। बरसों का अर्जन, विचार-विमर्श, मैत्री और अन्य आदान-प्रदान कब संस्कृति बन जाते हैं और कब हमारे समाज का आधार बनते हैं, हमें पता नहीं लग पाता। एक तरफ ये बल परोक्ष बने रहते हैं, लेकिन जब मनुष्य इन्हें प्रत्यक्ष करना चाहता है तो वह अन्य अभिव्यक्तियों का सहारा लेता है, जैसे साहित्य, चित्रकला, नृत्य, ललित कला, संगीत आदि।
मनुष्य की उत्तम कृतियों का उद्गम उसकी संस्कृति है, जिसे वह साहित्य के जरिए सामने लाता है। मसलन, भारतीय संस्कृति का आधार और परम ध्येय विश्व शांति रहा है, जिसकी अभिव्यक्ति महोपनिषद में ‘उदारचरितानाम् तु वसुधैव कुटुम्बकम्’ के रूप में हुई। उर्दू साहित्य के महान रत्न अल्लामा इकबाल ने इसी बात को ‘अखुव्वत की जहांगीरी, मुहब्बत की फरावानी’ कह कर संबोधित किया। जब-जब विश्व शांति पर हमले हुए हैं, इसके प्रति छल करने के कदम उठाए गए हैं, तब-तब किसी साहित्यकार ने आवाज उठाई है।
मनुष्य उन्मुक्त है, स्वच्छंद है और यही संस्कृति का मर्म है। विश्वपटल पर पूंजीवादी और साम्राज्यवादी शक्तियों के विरुद्ध बोलने का बल जन-मानस को इसी साहित्य ने दिया। संस्कृत में ‘वंदे मातरम्’ उर्दू में ‘सरफरोशी की तमन्ना’ बांग्ला में ‘एकला चलो रे’ जैसे उद्घोषों ने स्वतंत्रता की उन्मुक्त अभिव्यक्तियों को अचूक सामर्थ्य दी। फ्रांस की क्रांति का मकसद भी तीन शब्दों में ढला- स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व। इसके अलावा, जब हमारी सामाजिक व्यवस्था की बात आती है तो इसमें दो तत्त्व विद्यमान होते हैं, यानी संस्कृति के ‘ताने’ में हमारे कार्यों, हमारे कर्मों का ‘बाना’ बुना जाता है, तब जाकर एक स्थिर समाज बनता है। संस्कृति पर आधारित समाज की खाकाकशी साहित्य से ही होती है। कभी प्रेमचंद अपनी ‘कर्मभूमि’, ‘रंगभूमि’, ‘ईदगाह’ से समाज की तह तक जाते हैं, कभी महादेवी वर्मा ‘मेरा परिवार’, ‘गिल्लू’ और ‘स्मृति की रेखाओं’ में इंसानियत के दायरे को मानव योनि के भी बाहर देखती हैं। विलियम वर्ड्सवर्थ इंद्रधनुष की तश्तरी पर बैठ कर जन-मानस को प्रकृति की सैर करा रहे हैं। कभी जॉन कीट्स को मनुष्य की प्रेमतृप्ति प्रकट करते हुए देखा जाता है तो कभी रूमी, रहीम, मीरा, रसखान को परम-प्रियतम की परम-तृष्णा में डूबे हुए देखा जाता है।
ये मन की मुद्राएं क्यों कागज पर अंकित की जाती हैं? क्यों फैज अहमद ‘फैज’ कह बैठते हैं- ‘हम परवरिश-ए-लौहो कलम करते रहेंगे?’ क्यों महिलाओं के दमन पर शायर मजाज कह उठते हैं- ‘तू इस आंचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था?’ पता चलता है कि ये सब मनुष्य के मन में उपज रही ‘उत्तम कृतियों’ के कारण हैं जिसे हम संस्कृति कहते हैं। उत्तम कृतियां, यानी उत्तम समाज बनाने की लालसा, जो मनुष्य को हमेशा प्रोत्साहित करती है कि हम बनाएं कुछ बेहतर। अगर साहित्य न हो तो ये अभिलाषाएं दबी ही रह जाएं।
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