आतिफ रब्बानी
पिछले दिनों महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र में पचहत्तर साल के एक किसान के खुद को चिता में जलाने की हृदय विदारक घटना सामने आई थी। महाराष्ट्र, तेलंगाना, कर्नाटक और पंजाब समेत देश के कई राज्यों में ऐसी घटनाओं में तेजी देखी गई है। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक 2003-2013 की अवधि में हर साल औसतन एक लाख से ज्यादा लोगों ने आत्महत्या की। प्रतिष्ठित मेडिकल जर्नल ‘लैंसेट’ में प्रकाशित जॉनथन कनेडी और लारेंस किंग के एक लेख में कहा गया है कि नगदी फसलों की खेती करने वाले एक हेक्टेयर से कम जमीन के मालिक किसानों के आत्महत्या करने की आशंका ज्यादा है, क्योंकि फसलों की कीमतों में होने वाले उतार-चढ़ाव का वे सबसे ज्यादा शिकार होते हैं। उनके बारे में डर बना रहता है कि वे बकाया कर्ज नहीं चुका पाएंगे। इस अध्ययन में भारत में इस तरह की आत्महत्याओं को ‘महामारी’ की संज्ञा दी गई है। गौरतलब है कि किसानों की आत्महत्या की घटनाएं उन राज्यों में अधिक हुर्इं हैं, जहां किसान मुख्य रूप से कपास और गन्ना जैसी नगदी फसलें उगाते हैं, जिनकी लागत बहुत अधिक आती है। इसके लिए किसान चौबीस से पचास फीसद ब्याज पर निजी साहूकारों से ऋण लेते हैं और आखिर वे इस दुश्चक्र में फंस जाते हैं।
भारत में किसानों के इस संकट के पीछे मुख्य रूप से तीन कारण हैं। पहला, जहां खेती-किसानी की लागत में लगातार इजाफा हो रहा है, वहीं लागत के अनुपात में कृषि उत्पाद के मूल्य में कमी हो रही है। दूसरा, कृषि ऋण की अपर्याप्त व्यवस्था और तीसरा, सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी का निरंतर घटते जाना। इस नवउदारवादी व्यवस्था में राजकोषीय घाटे को कम करने की दिशा में कृषि सबसिडी में लगातार कटौती की जा रही है, जिसका सीधा असर कृषि की लागत पर पड़ता है। किसान कर्ज लेकर खेती करने के लिए मजबूर होता है और उस पर चक्रवृद्धि ब्याज के चक्कर में अदायगी राशि कई बार सौ गुना तक हो जाती है। वह इस शिकंजे से अपना खेत-खलिहान बेच कर भी नहीं निकल सकता। आखिरकार वह आत्महत्या कर लेता है। एमएस स्वामीनाथन की राष्ट्रीय किसान आयोग की रिपोर्ट में लिखा है कि भारत के चालीस फीसद किसान अब खेती छोड़ने को तत्पर हैं।
सच यह है कि किसान के हाथ से जमीन निकलती जा रही है और वह भूमिहीन खेत मजदूर बनता जा रहा है। सरकार की एक ताजा रिपोर्ट के मुताबिक सिर्फ दस फीसद आबादी का पचपन फीसद भूमि पर नियंत्रण है। इसी स्थिति में कुछ समय पहले मोदी सरकार ने ‘भूमि अधिग्रहण, पुनर्व्यवस्थापन और पुनर्वास में पारदर्शिता और न्यायोचित मुआवजे का अधिकार (संशोधन) अधिनियम 2013’ के प्रावधानों में संशोधन के लिए अध्यादेश जारी कर दिया। इसके तहत अब कृषि भूमि अधिग्रहण का कार्यक्रम बिना रोक-टोक जारी रह सकेगा। जबकि अधिग्रहण के कारण ही खेती का रकबा लगातार सिकुड़ता गया है। पिछले चार दशकों में इसमें साढ़े अठारह फीसद की कमी आ चुकी है। बहुराष्ट्रीय कंपनियां और देशी कॉरपोरेट किसानों को निशाने पर रख कर बेलगाम मुनाफा कमाना चाहते हैं। मौजूदा अध्यादेश इसी मकसद को और आसानी से पूरा करता नजर आ रहा है।
किसानों को उनकी फसलों का उचित मूल्य और उनके आर्थिक संकट की दशा में वित्तीय संरक्षण दिए बिना आत्महत्याओं की यह ‘महामारी’ खत्म नहीं होने वाली। साथ ही किसानों को अपनी जमीन बचाने के लिए भी लामबंद होना पड़ेगा।
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