प्रशांत कुमार

सभ्य समाज की बुनियाद संवेदना पर टिकी होती है। लेकिन एक तरफ हमारा समाज आधुनिक होने का दंभ भरता है, तो दूसरी ओर अपने अंदर बदलाव लाने को तैयार नहीं है। सही है कि विकास की मंजिलों को तय करने में हमारे समाज ने काफी सफलता अर्जित की है। मगर कई ऐसे मोर्चे हैं, जहां अभी भी हमें दो पल ठहर कर सोचने की जरूरत है। आज जिस गति से हमारा समाज हिंसक होता जा रहा है, आने वाले वक्त के लिए यह एक अच्छा संकेत नहीं है।

बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के सरैया प्रखंड में बीते दिनों दंगे की खबरें आर्इं। प्रेम प्रसंग में अपहरण से शुरू हुए इस मामले ने भीषण दंगे का रूप अख्तियार कर लिया और भीड़ ने अल्पसंख्यक समुदाय के दो दर्जन से ज्यादा घरों को फूंक डाला। चार लोग मारे गए। पूरे घटनाक्रम में पुलिस की भूमिका संदेह के घेरे में है। इस बात की सूचना पाकर कि अपहृत युवक का शव बरामद होने के बाद आक्रोशित लोगों ने अल्पसंख्यकों की बस्ती पर हमला कर दिया है, पुलिस दो घंटे बाद घटनास्थल की ओर गई। जाहिर है, अगर पुलिस समय पर सक्रिय हुई होती तो उस हिंसा को टाला जा सकता था। हजारों की तादाद में हिंसक भीड़ से जान बचाने के लिए भागते लोगों के लिए एक तरह से फरिश्ता बन कर आई शैल देवी ने अपने घर में कई लोगों को पनाह देकर उनकी जान बचाई। यह एक मिसाल है कि जहां एक तरफ लोग अल्पसंख्यकों के खून के प्यासे बन उन्हें ढूंढ़ रहे थे, वहीं एक ऐसी भी महिला थी जिसने अपनी जान की बाजी लगा कर लोगों की हिफाजत की। घटना के बाद हालत यह है कि कुछ लोगों की इच्छा अब भी दंगे की आग को बुझने देने की नहीं है। अफवाहों का सिलसिला थमा नहीं है। सवाल है कि आखिर ऐसी कौन-सी साजिश थी कि हत्या की एक घटना से गुस्साए हजारों लोगों ने आगजनी और मारने-काटने का खेल शुरू कर दिया। जिस तरह एक साथ अचानक उतनी बड़ी तादाद में लोग जुट गए और अल्पसंख्यक बस्ती पर हमला कर दिया, उससे यह आशंका खड़ी होती है कि कहीं यह सब कुछ पूर्वनियोजित तो नहीं था! कहीं यह चुनाव की आहट पाते ही फिर सांप्रदायिक आधार पर मतों के ध्रुवीकरण का खेल तो नहीं है! इससे पहले जितने भी दंगे हुए, सभी में प्रशासनिक लापारवाही ने आग में घी का काम किया।

अपहृत युवक के पिता ने जिस तरह यह कहा कि जो लोग लूट-मार कर रहे थे, उन्हें वह जानता तक नहीं, उससे इस समूची घटना के सुनियोजित होने की आशंका मजबूत होती है। अब कुछ गिरफ्तारी और मुआवजे से सब कुछ शांत करने की प्रक्रिया चलेगी। लेकिन क्या इससे पहले जैसी स्थिति बहाल हो जाएगी? इस बात की क्या गारंटी है कि इलाके में शांति-व्यवस्था बनी रहेगी? जो लोग एक दूसरे के खून के प्यासे बन गए थे, क्या वे अब एक दूसरे को पहले की तरह देखना पसंद करेंगे? क्या इस हिंसा को अंजाम देने वालों का यही मकसद था कि अब तक सौहार्द के साथ रहते आए लोगों के बीच नफरत के बीज बो दिए जाएं?

अब तक हुए तमाम दंगों में पुलिस की विफलता की भूमिका ही सबसे ज्यादा रही है। उत्तर प्रदेश में मुजफ्फरनगर दंगे में भी पुलिस की क्या भूमिका रही थी, यह सभी जानते हैं। अगर हम, हमारा समाज और इसके नीति-नियंता अब भी नहीं चेते तो ऐसी घटनाएं देश और समाज को नष्ट कर देंगी। इस तरह की घटनाओं के बीच मरती है सिर्फ इंसानियत। मुजफ्फरपुर की दुखद घटना के बीच अच्छी खबर यह आई कि वहां नागरिक संगठनों ने मोर्चा संभालते हुए समाज में सद्भाव बहाल करने की पूरी कोशिश की है। ऐसी पहलकदमी की आज सख्त जरूरत है।

 

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