सुरेश उपाध्याय
विकास के नाम पर भूमि अधिग्रहण 1894 के अंग्रेजों के बनाए कानून के आधार पर होते रहे हैं। 2013 में लंबे अंतराल और गहन विमर्श के बाद नया कानून बनाया गया। संसद की जिस समिति ने इस विधेयक को तैयार करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया था, उसकी अध्यक्षता वर्तमान लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन जैसी वरिष्ठ सांसद ने की थी। लेकिन भाजपा के सत्ता में आते ही इस कानून में बदलाव की जरूरत क्यों हुई? ऐसी क्या आपदा आई कि अध्यादेश लाया गया? अब जबकि इस अध्यादेश के खिलाफ पूरे देश मे उद्वेलन है, फिर भी सरकार पुनर्विचार के बजाय हठधर्मिता प्रदर्शित कर रही है! लोकसभा में ‘बहुमत को डिक्टेट नहीं किया जा सकता’ जैसे स्वर क्यों सुनाई दे रहे हैं? लोकतंत्र में जनता की भूमिका क्या सिर्फ वोट देने तक सीमित है? जन-भागीदारी का क्या आशय है? भूमि अधिग्रहण, उसके उपयोग, विस्थापन, खासतौर पर सेज (विशेष आर्थिक क्षेत्र) के संदर्भ में एक श्वेत-पत्र सरकार को जारी करना चाहिए। इससे भूमि अधिग्रहण के खेल की सच्चाई सामने आ जाएगी।
गौरतलब है कि 1947 से 2004 तक की अवधि में विभिन्न परियोजनाओं के चलते विस्थापित या प्रभावित हुए लोगों की कुल संख्या करीब छह करोड़ है और इन परियोजनाओं के लिए जो जमीन अधिग्रहित की गई, वह करीब ढाई करोड़ हेक्टेयर है। इसमें सत्तर लाख हेक्टेयर वनभूमि और साठ लाख हेक्टेयर अन्य साझा संपत्ति है। इन परियोजनाओं से कुल विस्थापित या प्रभावित होने वाले लोगों में चालीस फीसद आदिवासी और बीस फीसद दलित समुदाय के लोग हैं। यानी विकास के नाम पर दलितों-वंचितों को ही कुर्बानी देनी पड़ी है, जबकि लाभ में उनका हिस्सा नगण्य रहा है।
नई आर्थिक नीतियों के नाम पर अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्वबैंक ने कींस के रोजगार, ब्याज और वित्त के उन्हीं सिद्धांतों को सघन रूप से तीसरी दुनिया के देशों पर थोपा, जिनका उपयोग दूसरे विश्वयुद्ध की समाप्ति पर उत्पन्न मंदी से उबरने के लिए किया गया था। हमने दक्षिणी एशिया में ‘टाइगर्स’ कही जाने वाली अर्थव्यवस्थाओं को इन नीतियों के फलस्वरूप ध्वस्त होते देखा है। सामाजिक मूल्यों और मनुष्य की गरिमा के साथ खिलवाड़ के वीभत्सतम दृश्य के दंश झेलने के लिए ये देश विवश रहे हैं। नब्बे के दशक में इन्हीं नई आर्थिक नीतियों को हमारे देश में भी लागू किया गया। निजी और विदेशी क्षेत्र को बढ़ावा और प्रोत्साहन, सार्वजनिक क्षेत्र को निरुत्साहित करना और पूंजी का भूमंडलीकरण इसके निहितार्थ रहे हैं। पिछले ढाई दशक से लागू आर्थिक नीतियों ने हमारी अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों को गहरे आघात दिए हैं।
आज सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र का योगदान चौंतीस फीसद से घट कर चौदह फीसद रह गया है। बीज, खाद, बिजली, पानी, कीटनाशक, दवाओं, कृषि उपकरणों के महंगे होने, कृषि आयात पर मात्रात्मक प्रतिबंध समाप्त करने और उपज के वाजिब दाम न मिलने से कर्ज के बोझ तले हताश किसान लगातार आत्महत्या कर रहे हैं। कृषि मजदूर शहर में पलायन को विवश हुए हैं, जहां रोजगार की स्थितियां पहले से ही विकराल हैं। बीते ढाई दशक में लगभग तीन लाख किसानों की आत्महत्या के बावजूद देश में इस बाबत उत्तेजना, उद्वेलन, आक्रोश और संवेदना का अभाव रहा है, राजनीति में यह कोई मुद्दा नहीं है। विशेष आर्थिक क्षेत्र के नाम पर किसानों की भूमि अधिग्रहित कर औद्योगिक घरानों और भूमाफिया को लूट की छूट दी गई है। कर और शुल्क में छूट से पांच लाख करोड़ से अधिक राजस्व हानि का अनुमान एक वित्तीय वर्ष में किया गया है। हमारी अर्थव्यवस्था के प्रमुख घटक कृषि की उपेक्षा कर ‘सबका साथ सबका विकास’ का सपना कभी पूरा नहीं हो सकता। हां, अगर यह नारा केवल सियासी जुमला था तो अलग बात है!
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