विवेकानंद सिंह

भारतीय क्रिकेट इतिहास में तीस दिसंबर 2014 को एक ऐसे कप्तान के लिए याद किया जाएगा, जो हमेशा अपने फैसलों के कारण मशहूर हुआ। मैदान खेल का हो या युद्ध का, दोनों जगहों पर जीत या हार में सेनापति के द्वारा लिए गए निर्णय अहम भूमिका निभाते हैं। मेरा मानना है कि भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान महेंद्र सिंह धोनी ने फिर एक सही फैसला लिया है। टेस्ट क्रिकेट से संन्यास लेने का उनका फैसला ठीक वैसा ही है, जैसा 2007 के बीस ओवरों के विश्वकप मैचों के फाइनल में उन्होंने मिसबाह-उल-हक के सामने आखिरी ओवर की गेंदबाजी का जिम्मा जोगेंदर शर्मा को थमा दिया था। उस समय भी क्रिकेट प्रेमियों को आश्चर्य हुआ था और आज भी हो रहा है। लेकिन तब भारत को सफलता मिली थी और अब भी मिलेगी।

धोनी के पूरे टेस्ट क्रिकेट कॅरियर से अगर उनकी कप्तानी में विदेशों में खेले गए मैचों का आंकड़ा हटा दिया जाए तो उनका रिकार्ड एक कप्तान के तौर पर असाधारण हो जाता है। वहीं विदेशों में खेले गए मैचों में उनका आंकड़ा औसत से भी खराब नजर आता है। धोनी ने जिन साठ टेस्ट मैचों में भारत की कप्तानी की, उसमें छब्बीस टेस्ट मैच विदेश में खेले गए। इनमें से भारत को सिर्फ छह मैचों में जीत मिली और तेरह में हार का सामना करना पड़ा। इसके उलट भारत में उनकी कप्तानी में खेले गए चौंतीस मैचों में भारत को रिकार्ड इक्कीस मैचों में जीत मिली और हार सिर्फ छह मैचों में। उन्होंने नब्बे टेस्ट के अपने कॅरियर में चार हजार आठ सौ छिहत्तर रन बनाए हैं। लेकिन धोनी इसीलिए खास नहीं हैं। उन्होंने क्रिकेट के हर क्षेत्र में भारत को नंबर एक खिताब हासिल करने में अपना योगदान दिया। भारत टेस्ट क्रिकेट में पहली बार नंबर एक की पायदान को छू सका।

धोनी ने जरूरत के मुताबिक खुद को हर भूमिका में अब तक फिट किया और यही कारण है कि वे हरदिल अजीज हैं। उन्होंने खुद को सिर्फ विकेटकीपर तक सीमित नहीं रखा, बल्कि कठिन मौकों पर भारत को अपने बल्ले से जीत दिलाई और गेंदबाजी में भी अपने हाथ अजमाए। जब टीम को उनकी जरूरत रही, उन्होंने एक मंझे हुए सेनापति की तरह टीम का नेतृत्व किया। कई मौकों पर उन्होंने कुछ ऐसे फैसले लिए, जिसके लिए उनकी निंदा होती रही, लेकिन अंत में टीम की जीत उन्हें हीरो बना देती थी। धोनी को लोग ‘किस्मत का बादशाह’ भी कहने लगे। जिस पल की कल्पना में सचिन ‘क्रिकेट के भगवान’ बनने के बावजूद अधूरे थे, वे पल भी धोनी की कप्तानी में उन्हें मिला, जब 2011 के क्रिकेट विश्वकप की ट्रॉफी सचिन के हाथ में थी।

अभी धोनी का क्रिकेट कॅरियर खत्म नहीं हुआ है। उन्होंने तो क्रिकेट और टीम इंडिया की बेहतरी का बस खयाल भर रखते हुए टेस्ट क्रिकेट को अलविदा कहा है। खबरें ऐसी भी थीं कि उनकी कप्तानी पर पहले से तलवार लटक रही थी। ऐसे में उनके इस फैसले के लिए यह वक्त सही था, क्योंकि उनकी टीम में अब ऐसे योद्धा तैयार हो चुके हैं जिनके मजबूत कंधे पर जिम्मेदारी डालना जरूरी था। कोई भी व्यक्ति ऊंचाई पर पहुंचता है तो विवादों का साया उसका पीछा करने लगती है। लेकिन धोनी हारने वालों में से नहीं हैं। धोनी के हर फैसले में कुछ चमत्कार की संभावना रही है। सामने क्रिकेट का सबसे बड़ा आयोजन भी है। सचिन तेंदुलकर ने भी उन्हें ट्वीट करके उस ओर ध्यान देने की सलाह दी है। उम्मीद है कि धोनी के हेलिकॉप्टर शॉटों का आनंद हम सबको मिलता रहेगा। एक छोटे शहर से बाहर निकल कर इस मुकाम तक की यात्रा करने वाले धोनी ने न जाने उन जैसे छोटे शहरों के कितने युवाओं में सपनों का संचार किया है!

 

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