प्रज्ञा वाजपेयी
भीड़ को आमतौर पर संदेह की निगाहों से देखा जाता रहा है। विलियम शेक्सपियर ने एक नाटक ‘जूलियस सीजर’ में रोम की जनता की इतनी क्षणिक बुद्धि का चित्रण किया कि भीड़ का पर्यायवाची ही ‘कुंद बुद्धि’ हो गया। उस नाटक में एक बार जनता एंटनी के भाषण से प्रभावित होकर अत्यधिक क्रुद्ध हो जाती है तो दूसरे नेता के भाषण देने पर फिर से अपना मत बदल लेती है। लोकतंत्र में जब मताधिकार की बात आई थी तो कई लोगों ने भीड़ की शक्ति और अपना नेता चुनने की लोगों की क्षमता पर संदेह व्यक्त किया था। फिर भीड़ में से मताधिकार के लिए काफी डरते-डरते वयस्क लोगों का चयन किया गया। तब बहुत से सवाल उठ रहे थे कि क्या लोग अपनी ‘भेड़ सोच’ से उठ कर एक समझदार और सशक्त नेता चुन पाएंगे! लोकतंत्र की स्थापना तो हो रही थी, पर भारत में ही नहीं, बल्कि बहुत से देशों में लोक की शक्ति पर विश्वास स्थापित होना बाकी रह गया।
आज भी हमारी संसद में कुछ कार्यवाहियां बंद कमरों में होती हैं। सरकारी गोपनीयता कानून ने तो सूचना का अधिकार आने से पहले लोक को बस लोकप्रियता के रिश्ते तक सीमित कर रखा था। शायद वह संदेह आज भी बरकरार है। हमारे संविधान निर्माताओं की इस बात पर काफी बहसें हुर्इं थीं कि हमारे लोकतंत्र को किस हद तक लोक पर निर्भर करना है। आज भी भीड़ को जब संदेह की नजर देखा और कम करके आंका जाता है तो इन अंगरेज गवर्नरों की याद आ जाती है जो भारतीयों के हाथ में देश को सौंपने के बाद भी कई सालों तक उनकी राज करने की क्षमता पर शक करते रहे। उसी तरह, लोकतंत्र को लोगों को सौंपे हुए कितने साल बीत गए, लेकिन जनता की निर्णय क्षमता पर संदेह आज तक बरकरार है।
कहने को इस देश में जनादेश का अत्यधिक सम्मान है, लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से लोगों को रोम की जनता साबित कर देना ही रिवाज-सा बन गया है। आमजन भी बार-बार ऐसी बातें सुन कर खुद को नासमझ ही समझ बैठा है। वह नेताओं को काफी बुद्धिमान मानता है और आजकल उनकी हर बात को ध्यान से सुनता है। अब वह वोट भी अपने निजी अनुभवों के आधार पर नहीं, बल्कि नेताओं के एक दूसरे की पोल-पट्टी खोलने वाले भाषणों से प्रभावित होकर देने लगा है। कुछ हिंदी फिल्मों और धारावाहिकों में यह एक कारगर उपाय के तौर पर दिखाया जाता था कि किसी व्यक्ति को बार-बार पागल कहने पर वह खुद को धीरे-धीरे पागल समझने लगता था। यही हाल लोकतंत्र के लोक के साथ हुआ है। एक किसान जिसे साल भर अपनी खेती के बीज से लेकर सिंचाई और यहां तक कि पूरी फसल तैयार होने के बाद भी उसे बेचने तक में सरकारी व्यवस्था का शिकार होना पड़ा, चुनाव के दौर में आंकड़े उसकी आंखों में चौधियां दिए जाते हैं और उसका मूल्यांकन का अपना पैमाना ही बदल जाता है।
भले ही भीड़ अपने द्वारा किए गए जेपी आंदोलन, अण्णा आंदोलन और दामिनी हत्याकांड के लिए एकजुट होकर संसद को सड़क से कानून और नीति उधार लेने पर मजबूर कर देने के लिए अपनी पीठ थपथपा ले, लेकिन ज्यादातर नेता भीड़ को भेड़ ही समझते हैं और उसे शासन नीति में ज्यादा हस्तक्षेप के लायक नहीं मानते हैं। भीड़ से बस भय है, कोई प्रीति नहीं। लेकिन भीड़ को भी अपनी क्षमता और शक्ति बनाए रखनी पड़ेगी। भीड़ के प्रतिकार लेने का डर ही सबमें प्रीति उत्पन्न करने के लिए काफी है।
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