राजेंद्र बंधु
पारंपरिक सामाजिक व्यवस्था में गांवों की सत्ता और विकास के फैसलों में कुछ संपन्न और दबंग लोगों का ही वर्चस्व रहता आया है। पंचायतों में दलित, आदिवासी और महिलाओं के आरक्षण से वर्चस्व की यह डोर थोड़ी ढीली जरूर हुई है, लेकिन पूरी तरह खत्म नहीं हो पाई। इसके अलावा, पंचायत में महिलाओं के पचास प्रतिशत आरक्षण को लेकर समाज में चाहे जो धारणा हो, लेकिन महिलाओं ने यह साबित किया है कि विकास सिर्फ पुरुषों के बूते की बात नहीं है, बल्कि महिलाएं भी उसे उतनी ही काबिलियत से अंजाम दे सकती हैं। बीस साल पहले पंचायती राज व्यवस्था के पहले चुनाव में आरक्षित सीटों पर महिलाएं खड़ी होने से झिझकती थीं और चुनाव प्रचार में उनके पति या परिवार के पुरुष अपनी पहचान आगे रखते थे। अनारिक्षत सीटों पर सिर्फ पुरुषों की दावेदारी रहती थी। लेकिन इस चुनाव में अपने संवैधानिक अधिकारों का उपयोग करते हुए राज्य के मालवा, निमाड, बुंदेलखंड और बघेलखंड क्षेत्र में कई अनारक्षित सीटों पर महिलाएं भी अपनी दावेदारी जता रही हैं। उदाहरण के तौर पर झाबुआ जिले की ग्राम पंचायत महूंडीपारा की सरपंच राजूडीबाई पिछले पंचायत चुनाव में आरक्षित सीट से लड़ते हुए जहां घूंघट से बाहर नहीं निकल पा रही थीं, वहीं इस बार वे अनारक्षित सीट से लड़ रही हैं और उनके साथ प्रचार में उनके पति या परिवार का कोई सदस्य नहीं, बल्कि गांव के कुछ लोग हैं।
इसी तरह बघेलखंड क्षेत्र के रीवा जिले की ग्राम पंचायत छिरहटा की सरपंच रही गुड्डीबाई भी अनारक्षित सीट पर अपना जोर आजमा रही हैं। उनके सामने खड़े पुरुष प्रत्याशियों ने पहले तो पुरुष सीट का भ्रम फैला कर और यहां तक कि धमकी देकर भी उनके नामांकन फार्म भरने में बाधा उत्पन्न करने की कोशिश की थी। मगर अब तक की उम्र तक स्कूल का मुंह नहीं देखने वाली गुड्डीबाई ने साफ जवाब दिया कि ‘चुनाव लड़ने का अधिकार मुझे भारत के संविधान से मिला है और मेरा यह अधिकार कोई नहीं छीन सकता।’ कटनी जिले के ग्राम पंचायत लखाखेरा की तुलसीबाई अपनी पंचायत की अनारक्षित सीट से ही चुनाव मैदान में हैं। यह सीट पूरी तरह अनारक्षित है। यानी इस पर किसी भी जाति-समुदाय के महिला या पुरुष चुनाव लड़ सकते हैं। ऐसी सीटों पर आमतौर पर सामान्य वर्ग के पुरुष ही चुनाव लड़ते हैं। लेकिन आदिवासी समुदाय की तुलसीबाई ने इस पर दावेदारी करके सबको चौंका दिया। इसी जिले की ग्राम पंचायत नन्हवारा कला की सरपंच रही कौशल्याबाई जनपद पंचायत सदस्य की अनारक्षित सीट पर चुनाव लड़ कर जमीनी राजनीति की अगली सीढ़ी पर कदम रख रही हैं। सरपंच के रूप में पिछले पांच सालों में समाज के दबंग लोगों से संघर्ष करती रहीं सतना जिले की मुन्नी साकेत इस बार उन्हीं लोगों के सामने चुनाव मैदान में हैं। वे कहती हैं कि ‘चुनाव में मैं नहीं, मेरा काम बोलता है।’
अनारक्षित सीटों पर चुनाव मैदान में डटी महिलाओं की यह फेहरिश्त यहीं खत्म नहीं होती। शहडोल, सतना, हरदा, छतरपुर जिले में कई ग्राम पंचायतों में महिलाएं जमीनी राजनीति की दौड़ में पीछे नहीं हैं और चुनावी समर में शामिल हैं। यानी मध्यप्रदेश के पंचायत चुनाव में सामाजिक बदलाव की प्रकिया साफतौर पर देखी जा सकती है। कई महिला प्रत्याशियों के बैनरों और पोस्टरों पर जहां उनके पति या परिवार के पुरुष सदस्यों के फोटो और नाम प्रमुखता से पाए जाते हैं, वहीं जमीन से उभरी कई महिला प्रत्याशियों के पोस्टरों पर पुरुष रिश्तेदारों का कोई स्थान नहीं है। ये महिलाएं अपने नाम, काम और अपनी पहचान के बल पर चुनाव मैदान में हैं, जो सामाजिक-राजनीतिक बदलाव के खास संकेतक हैं।
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