प्रियंका
मेरे कमरे की ट्यूबलाइट अचानक बुझ गई थी। रविवार के दिन हॉस्टल का दफ्तर बंद रहता है। इसलिए मैं शिकायत दर्ज कराने सुरक्षा कर्मचारियों के पास गई। शिकायत दर्ज करने वाली महिला गार्ड सहयोगी स्वभाव की थीं। इस बहाने उनसे बातचीत का मौका मिला। वे थोड़ा परेशान थीं, क्योंकि वे जिस कंपनी के तहत यहां नौकरी कर रही थीं, उसका अनुबंध बदलने वाला था और एक नई कंपनी आ रही थी। उन्होंने कहा- ‘हम अस्थायी नौकरी पर हैं और शायद सबकी छंटनी हो जाएगी। नई कंपनी उन्हीं को रखेगी जो ज्यादा भाषाएं जानते होंगे। अभी मेरे बेटे को नौकरी लगने में कम से कम छह-सात महीने लगेंगे। उसने इंजीनियरिंग की पढ़ाई की है। छोटा बेटा अभी एमसीए कर रहा है। लेकिन अभी हालात ऐसे नहीं कि मैं नौकरी के बिना रह सकूं!’
पांच-छह वर्ष पहले उनके पति किसी दुर्घटना के शिकार हो गए थे और उनके दोनों हाथों का आॅपरेशन करना पड़ा, जिसके चलते वे बिस्तर पर आ गए और उनका मिल में जाना बंद हो गया और इधर भाइयों ने संपत्ति से वंचित कर दिया। ऐसे हालात में वे दो बेटों और पति के साथ अपने मायके हैदराबाद आ गर्इं और काम तलाशना शुरू किया। उन्होंने बारहवीं तक की पढ़ाई की है। पिछले एक साल से वे यहां हैदराबाद विश्वविद्यालय के महिला छात्रावास में एक सुरक्षा गार्ड की कंपनी के तहत नौकरी कर रही हैं। उन्होंने बताया कि हमारी छुट्टी कभी नहीं होती। रोज बारह घंटे की ड्यूटी, एक हफ्ते दिन और दूसरे हफ्ते रात की। चूंकि वे अस्थायी नौकरी पर हैं, इसलिए छुट्टी लेने पर एक दिन के पांच सौ रुपए काट लिए जाते हैं और हर महीने कम से कम दो हजार रुपए कटने के बाद हाथ में लगभग ग्यारह हजार रुपए आ पाते हैं। उन्होंने ही बताया कि कई जगह तो सात-आठ हजार रुपए ही महीने के मिलते हैं।
घर में सुबह चार बजे उठ कर खाना बनाना, सफाई सब उनके ही जिम्मे होता है। विपत्ति के दिनों में एक साथ मां-पिता, पत्नी और पति की भूमिका निभाने वाली उस महिला के आत्मसंतोष को महसूस किया जा सकता था। मैंने कहा- ‘परिस्थितियों ने आपको मजबूत बना दिया। आप घर की चारदिवारी से निकल कर कितना कुछ जान-समझ रही हैं और सबसे बड़ी बात कि आत्मनिर्भर हैं।’ खुश होकर वे बोलीं- ‘अपने हाथ में पैसा रहता है तो किसी के आगे हाथ नहीं फैलाना पड़ता। छोटे बेटे को लैपटॉप की जरूरत है। फिलहाल उसी के लिए पैसा बचा कर जोड़ रही हूं।’ असहाय होने पर जिन्हें हमारी सहायता करनी चाहिए, वे कितनी बेरहमी से हमें धक्के लगा कर घर से बाहर निकाल देते हैं। आखिर हम किस पर भरोसा करें? जिन बेटों की नौकरी के बाद वे अपने लिए सुख के दिनों की कल्पना कर रही हैं, क्या वे मां की भावनाओं की कद्र कर सकेंगे? क्या यह नौकरी छोड़ने के बाद वे आर्थिक अधिकार उनके पास रह जाएंगे, जिनके कारण वे आत्मविश्वास से भरी रहती हैं?
गरिमामय स्थायी नौकरियों का तो जैसे अकाल पड़ गया है। निजी कंपनियां किन अमानवीय परिस्थितियों में नौकरी करवाती हैं, उसे इस सुरक्षा गार्ड की बिना अवकाश रोज बारह घंटे की ड्यूटी की मजबूरी से समझा जा सकता है। सरकार और मजदूर हितों की बात करने वाले संगठन क्या आंखें मूंदे बैठे हैं? दरअसल, हम सब अमानवीय परिस्थितियों के आदी हो गए हैं। जब भी मैं उधर से गुजरती हूं, वे थोड़ा मुस्करा देती हैं। वह हंसी अब मुझे बेधने लगी है। मुझे लगने लगा है कि वह खुद्दार औरत कम से कम खुशी से नहीं, बल्कि हम सब पर हंसती हैं, जिन्होंने अपने आसपास की विसंगतियों से नजरें फेर ली हैं और एक बदतर दुनिया की खूबसूरती पर रीझ कर डिस्को की धुनों पर नाचा करते हैं।
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