मिथलेश शरण चौबे

चुनाव आयोग को भले बेहतर चुनाव आयोजित कराने के लिए शाबासी मिलती रहती है, लेकिन उसकी नाक के नीचे से लगातार कुप्रबंधन और नियंत्रणहीनता के जो उदाहरण मिलते हैं, वे उसकी साख पर पर्याप्त खरोंच बनाते जा रहे हैं। फर्जी मतदान की देशव्यापी शिकायतों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। ऐसी कुछ बड़ी घटनाओं के लिए तो साक्ष्य का बहाना लेकर खारिज करने की कोशिश होती ही है, पर इवीएम, यानी इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन के युग में भी अनेक बाहुबलियों द्वारा व्यापक स्तर पर की जाती फर्जी वोटिंग की कठोर सच्चाई से मुंह फेरना लोकतंत्र के लिए कैसे ठीक हो सकता है! इसके साक्ष्य उन हजारों-लाखों मतदान से वंचित लोगों के चेहरों पर मिल जाते हैं, जिनके वोट दिए जा चुके होते हैं।

राजनीतिक पार्टियों द्वारा चुनाव के समय किए जाने वाले वादे इसी की एक और कड़ी हैं, जिन पर किसी तरह का नियंत्रण नहीं दिखता। सत्ता मिलने पर वादे के मुताबिक काम करने का संयोग शायद ही सामने आता है। कांग्रेस और भाजपा ने चुनाव-पूर्व के वादों को तोड़ने में कुछ ज्यादा ही महारत पेश की है। लोकप्रियता दिलाने वाली कुछ बेमतलब की योजनाओं से अपनी छवि चमकाते भाजपा-शासित राज्यों में राशन के सार्वजनिक वितरण में कुप्रबंधन और व्यापक धांधली चुनावी घोषणाओं को तिलांजलि देने का एक ज्वलंत उदाहरण है और इस दौड़ में भी भाजपा अव्वल नजर आती है। ताजा नमूना काला धन मुद्दे पर भाजपा ने समूचे देश के सामने हैरतअंगेज तरीके से प्रस्तुत किया है। कांग्रेस की यूपीए सरकार ने काला धन के मसले को उचित निराकरण की ओर ले जाने में अनिवार्य पहल में आनाकानी की।

उससे कई कदम आगे जाकर भाजपा ने अपने और अपने नेताओं के पक्ष में अनर्गल तर्कों से माहौल बनाने में जुटे रामदेव की तरह के मौसमी वक्ताओं और दक्षिणपंथ के घोषित पैरवीकार पत्रकारों से काला धन को एक चुनावी मुद्दा बनाने के लिए जो लाभ के फूले गुब्बारे अपने बयानों से बांटे, उसने वोट का तात्कालिक फायदा भाजपा को दिया। आश्चर्य की बात यह कि ऐसा करते हुए इन सबने कालाधन प्राप्ति की संभावना के तमाम जटिल पहलुओं का न तो गंभीरता से विश्लेषण किया और न विपक्ष में रहते हुए तत्कालीन सत्ता पक्ष के इस विषय पर संशयग्रस्त रहने के सच को जाना। अनेक देशों की काला धन वापसी पर हुई समृद्ध आर्थिकी की खबरों को अपने लिए भी सच और अनुकरणीय मानने के अविचारित उतावलेपन ने चुनाव के गणित को साधने का एक अस्त्र प्रदान किया।

यही वजह है कि तब के और मौजूदा वित्तमंत्रियों में सिर्फ मुखौटों का अंतर है, उनके बयानों, कालाधन वापसी की जटिलता के तर्कों और क्रियाशीलता में कोई फर्क नजर नहीं आता। पंद्रह लाख रुपए प्रति नागरिक का हिसाब बताने वाले बाबा-वकील-पत्रकार सब अदृश्य हैं। विदेश यात्राओं, चुनावी राज्यों में नए-नए वादों और चंद उद्योगपतियों के बड़े हितों में लीन प्रधानमंत्री जनता के साथ किए गए वादे को कब पूरा करेंगे? व्यक्तिगत जीवन में वादाखिलाफी से प्रभावित रिश्तों से दूर होने में तनिक भी देर नहीं करते लोग, क्या इस सार्वजनिक विश्वासघात को चुप रह कर बर्दाश्त कर जाएंगे? क्या चुनाव आयोग को इस तरह के चुनाव-पूर्व वादों को सत्ता प्राप्ति के बाद पूरा न हो पाने की स्थिति में राजनीतिक दलों पर किसी तरह का अंकुश नहीं लगाना चाहिए?

 

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