महिला दिवस पर अरविंद केजरीवाल का संदेश उनके असावधानीपूर्ण शब्द चयन के कारण स्त्री विमर्श करने वालों के हत्थे चढ़ गया। स्त्री की सहनशीलता के लिए चट्टानी ताकत और उफ्फ तक न करने की बात से और अपने परिवार की दो स्त्रियों को अपनी सफलता का श्रेय देकर वे दरअसल स्त्री समाज के प्रति अपनी संवेदनशीलता का परिचय देना चाहते थे। अपने संदेश के उत्तरार्ध में उन्होंने अपनी बात को संभालने की कोशिश भी की। लेकिन अपने मंतव्य को समुचित शब्द और शैली नहीं दे पाए।

अगर मुझे भी उनके इस वक्तव्य की बखिया उधेड़नी हो तो इन्हीं शब्दों का आसरा लेकर उन्हें स्त्री विरोधी सिद्ध कर सकती हूं। लेकिन भाषा के अध्येता के नाते, मंशा और शब्दों के बीच की फांक को आसानी से पकड़ सकती हूं। इसी वजह से मैं उन पर यह आरोप नहीं लगा सकती।

अपनी शैक्षिक योग्यताओं के आधार पर अरविंद पर्याप्त विद्वत्तापूर्ण भाषा बोल सकते होंगे! पर लोकसम्मत भाषा बोलने की जिद के पीछे शायद उनकी कई पूर्वधारणाएं काम करती हैं। अब तक उन्होंने इसी अतिसाधारण भाषा के बल पर अपने लिए बड़ा जन-समर्थन जुटाया है। पर कभी-कभी बेहद संवेदनशील मसलों और विमर्शों पर बोलते हुए हमें भाषा को कुछ हद तक विद्वत्तापूर्ण भी बना लेना होता है।

स्त्री विमर्श जैसे मसले पर बोलना, वह भी एक पुरुष जननेता के लिए चुनौतीपूर्ण काम है। दलित विमर्श के मुद्दों पर भी अगर किसी सवर्ण को संवेदनशीलता के साथ बात करनी हो तो वह भी अपने किसी शब्द प्रयोग, वाक्य संरचना या व्यंजनार्थ के आधार पर बहुत आसानी से असंवेदनशील घोषित किया जा सकता है। किसी वर्ग से इतर का व्यक्ति जब उस वर्ग के विमर्श की परिधि में आता है तो दोनों ओर से एक न्यूनतम सौहार्द और सदाशयता की दरकार होती है।

अरविंद ने जिस प्राकृतिक सहनशीलता की बात की, वह दरअसल समाजीकरण और जेंडर प्रशिक्षण के जरिए स्त्री में जबरन आरोपित गुणावली का हिस्सा मात्र है। जिसे उन्होंने सहज मान लिया, वह गुण दरअसल स्त्री पर आरोपित वंचनापूर्ण परिस्थितियों का नतीजा है। यह बहुत बारीक और परिपक्व समझ से ही जाना जा सकने वाला सत्य है। अपने परिवार की स्त्रियों को अपने हिस्से आई शोहरत और कामयाबी का श्रेय देकर वे नरेंद्र मोदी के द्वारा स्थापित मूल्यों को विस्थापित करना चाह रहे होंगे।

आज के समय में स्त्री और पुरुष की बराबर भागीदारी से समाज आगे बढ़ रहा है, पर परिवार को दोनों में से किसी एक व्यक्ति की ऊर्जा चाहिए होती है। यही सवाल स्थापित स्त्रियों से भी पूछा जाना चाहिए, क्योंकि उनकी कामयाबी और शोहरत के पीछे भी पति या कोई घरेलू सहायिका या अन्य किसी सहायक का हाथ जरूर होता है। स्त्री जब अपने पति या परिवार के पुरुष को श्रेय दे तो वह हमें पितृसत्ता से प्रभावित परतंत्र स्त्री लगती है।

पुरुष जब अपनी पत्नी या परिवार की स्त्री को श्रेय दे तो हम उसे उत्पीड़क और अतिमहत्त्वाकांक्षी मान लेते हैं। इसलिए ऐसी विडंबनापूर्ण नियति से बचने की प्रक्रिया में विमर्शों को अपनी प्रकृति में उदार होना होता है। आलोचनाओं की मंशा से भी न्यूनतम सदाशयता की उम्मीद तो की ही जानी चाहिए। भाषिक समझ की उदारता और सदाशयता के अभाव में किया गया स्त्री विमर्श हमारे लिए किसी काम का नहीं हो सकता।

एक आम स्त्री के लिए अरविंद का यह वक्तव्य सम्मान और बराबरी के अर्थ देने वाला रहा होगा, पर किसी स्त्री विमर्शकार के लिए इसकी सकारात्मक अर्थोत्पत्ति विमर्शकार की उदार समझ के स्तर पर ही निर्भर होकर रह जाएगी। इस पूरे प्रकरण से हमारा यह विचार और पुख्ता होता है कि कोई जननेता मंच से या तो जनसमर्थन जुटा सकता है या फिर बेहतर विमर्शों को अंजाम दे सकता है। दोनों को एक साथ साध्य बनाने लायक भाषिक और वैचारिक योग्यता फिलहाल किसी राजनेता में नहीं दिखती।

नीलिमा चौहान

 

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