वर्षा
जनसत्ता 17 नवंबर, 2014: पानी के बहाव को जितना रोकने की कोशिश करेंगे, उतने ही बल के साथ पानी निकलेगा। ‘किस आॅफ लव’ प्रतिरोध का प्रतीक है, जो प्रेम की अभिव्यक्ति की आजादी मांग रहा है। इसके तरीके को लेकर कुछ लोग आतंकित हैं कि यह तो अश्लीलता है! लड़का-लड़की को साथ खड़े देखने तक से ऐतराज करने वाले लोग ‘किस आॅफ लव’ को देख कर इतने तक पर तैयार हो गए हैं कि हाथ में हाथ डाल कर या एक दूसरे को फूल देकर प्रदर्शन कर लेते! वैसे बुजुर्ग इसे ‘कैसा जमाना आ गया है’ की तरह देख रहे हैं, जिनका अपना वक्त शायद कई हदों में बंधा हुआ था। बहुत सारे लोग सहज तरीके से अपनी पत्नी तक का चेहरा नहीं देख सकते थे। जमाने के बदलने के साथ एक दूसरे को देख लेने भर से प्यार हो जाने और छू लेने भर से सिहर उठने वाले लोग देख रहे हैं कि नए लड़के-लड़कियां बेपरवाही से एक दूसरे के कंधे पर धौल जमा कर ‘चल यार’ कह रहे हैं। सब सहज है। लेकिन आज भी लड़कियों के जींस पहनने और मोबाइल रखने पर फतवे जारी हो रहे हैं। इसी खींचतान में जमाना बदल रहा है।
केरल में कोझिकोड के एक कॉफी शॉप में आपस में चुबंन लेते लड़के और लड़की पर हमले के खिलाफ उपजे आंदोलन की आग दिल्ली-मुंबई-कोलकाता तक पहुंच गई और ढेर सारे विद्यार्थी भी इसमें शामिल हुए। आज के दौर में युवा अपने तरीके से जीने और प्यार का इजहार करने को आजाद हैं। जिस गति से नैतिकता के ठेकेदारों के हमले बढ़े हैं, उसी गति से प्रतिरोध भी सामने आया है। इसी में प्रतिरोध का यह नया तरीका भी सामने आया। इस तरीके से हैरान एक गुट संस्कृति की दुहाई लेकर सड़कों पर आया। उसने नारा दिया- ‘प्यार करो, पर अपनी संस्कृति के अनुसार!’ बहुत सारे लोगों को लगता है कि प्रतिरोध का तरीका कुछ अलग हो सकता है। एक दूसरे को सार्वजनिक तौर पर चूमना उनके लिए ‘कुछ ज्यादा ही हो गया’ वाली बात है। सवाल है कि इस मसले पर नैतिकता की पहरेदारी करने वाले लोग उस वक्त कहां चले जाते हैं, जब किसी लड़की के साथ बीच सड़क पर छेड़छाड़ होती है। याद कीजिए असम के गुवाहाटी की घटना। पूरी भीड़ लड़की के साथ अश्लील हरकतें और छेड़खानी कर रही थी।
महिलाओं के साथ ऐसा बर्ताव करने वाले आमतौर पर ये वही लोग होते हैं, जो नैतिकता की ठेकेदारी में लगे होते हैं। ये कभी किसी रेस्तरां में घुस कर बैठे जोड़े पर हमला बोल देते हैं, लड़के-लड़कियों के बाल काटने लगते हैं, पार्क में लड़कियों के बाल पकड़ कर खींचना शुरू कर देते हैं। ये उस संस्कृति की पहरेदारी करने का दावा करते हैं, जिसमें बलात्कार की घटनाओं को आम घटना में शुमार किया जा रहा है। हर घंटे कहीं कोई लड़की शोषण का शिकार हो रही होती है। तीन-चार साल की मासूम बच्चियों तक को दरिंदे नहीं छोड़ रहे। स्कूलों और बसों में बलात्कार हो रहे हैं, भीड़-भाड़ वाली सड़क पर कोई लड़की कार में खींच ली जाती है और खून से सनी किसी वीराने में फेंक दी जाती है। लेकिन नैतिकता के ठेकेदारों की नैतिकता तब जाने कहां चली जाती है! सवाल है कि जो लोग दो वयस्कों को आपस में चुंबन लेने से रोकने के लिए सड़कों पर मोर्चा खोलते हैं, वे बलात्कारियों के खिलाफ क्यों नहीं उतरते! यह दोहरापन क्यों? सार्वजनिक तौर पर अश्लीलता को लेकर कानून हैं और इससे उसी हिसाब से निपटा जाना चाहिए। लेकिन अश्लीलता की परिभाषा कौन तय करेगा?
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