पिछले दिनों कथासम्राट मुंशी प्रेमचंद की जयंती पर कई कार्यक्रम आयोजित किए गए। अधिकतर कार्यक्रमों में इस बात पर चिंता जताई गई कि ऐसे कहानीकार या इनके समय के कवियों, लेखकों और कथाकारों को आधुनिक भारतीय भाषा के पाठ्यक्रमों से निकाला जा रहा है। कई लोगों ने सीधे तौर पर सत्ता संचालित शैक्षणिक व्यवस्था पर आरोप लगाते हुए उन्हें दोषी बता रहे थे। कई लोगों का मानना था कि आज वह भारत नहीं है जो प्रेमचंद के जमाने में था। लोगों ने तथ्य रखते हुए कहा कि वह दौर औपनिवेशक काल का था। आज हम इससे बाहर निकल कर बहुत आगे निकल चुके हैं। बीते समय को याद करना उचित नहीं है।
अधिकतर लोगों का विचार यही होता है कि बीती बातों को याद करने से कोई फायदा नही! कुछ हद तक यह सही भी है कि हम गुजरे जमाने को याद क्यों करें! लेकिन हमें लगता है कि विरासत को संभालकर रखने से ही भविष्य स्वर्णिम हो सकता है। इतिहास कई सबक दे जाता है। कभी वह उत्साह से भर देता है और कभी यह सीख भी देता है कि कठिन परिस्थितियों में हमसे पहले कई लोगों ने कैसे मुकाम हासिल किया। हम हिंदी को सर्वोपरी रखने की वकालत करते हैं, लेकिन हिंदी की पहचान जिन लोगों से बनी, उन्हें भुला देना चाहते हैं। प्रेमचंद, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, फणीश्वर नाथ रेणु, महादेवी वर्मा, मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुवेर्दी, आदि कई ऐसे कवि, लेखक और कहानीकार हुए जो पाठकों का मनोरंजन नहीं करते थे, बल्कि लोगों के जीवन में बदलाव और आजादी की लड़ाई में सहयोग को प्रेरित करते रहे हैं। ऐसे कथाकारों को पाठ्यक्रम से निकाला अपनी नई पीढ़ी को इनसे दूर करने के समान है।
अपनी विरासत को भुला कर कोई महान नहीं बन सकता। अगर कोई व्यक्ति अपने बाप दादा को भूलकर अपने को आधुनिक होने का स्वांग करे तो मैं समझता हूं कि उससे बड़ा बेवकूफ कोई नहीं है। आज भी इन साहित्यकारों को, महापुरूषों को, कला के क्षेत्र में, खेल और संस्कृति के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान देने वाले लोगों को याद करने की जरूरत है। इन लोगों ने बताया है कि कैसे विषम परिस्थितियों में उन्होंने लगन और मेहनत से धरोहर को संभालकर रखा है। हम ऐसे विरासत को भुला कर विश्वगुरू बनने का सपना नहीं देख सकते हैं।
’अशोक कुमार, बेगूसराय, बिहार<br />
कथनी और करनी
महंगाई में लगातार हो रही बढ़ोतरी लोगों की जेब काट रही है। यह ऐसे दौर में हो रहा है, जब लोगों के सामने जान बचाने की भूख एक बड़ी समस्या बन चुकी है। दूसरी ओर, खुद नेताओं की झूठी और भद्दी टिप्पणियां जनता के सामने उनकी विफलता का खुलासा कर रही है। कोई सत्ता कैसे इतनी लापरवाह हो सकती है कि लोगों को आॅक्सीजन और अन्य इलाज की जरूरत हो और उन्हें अभाव के चलते मरने के लिए छोड़ दिया जाए? दूसरी लहर के दौरान गंगा में बहती लाशों को कोई कैसे भूल सकता है? सबके सब नेता सिर्फ एक शीर्ष नेता की चमक और चेहरे को और मजबूत बनाने में लगे हैं।
बेहतर होगा कि 2021 की जनगणना तथा अन्य बातों का सर्वेक्षण किया जाए। इससे न सिर्फ असली चेहरा दिखेगा, बल्कि शब्दों और काम का भी पता चलेगा। जनता की जेब से पैसे निकालने और फिर दूसरे ओर टीका बांटने का सिलसिला जारी है। हर पेट्रोल पंप पर लगे पीएम के बैनर और बड़े विज्ञापन याद दिलाते हैं कि हमारे शरीर में डाली गई बूंद को किस तरह से पेट्रोल के मीटर आगे बढ़ रहे हैं। पेट्रोल पंप बैनर और टीकाकरण प्रमाण पत्र पर चित्रित भारत के लोकप्रिय नेता की संकीर्णता का अधिक हास्यास्पद उदाहरण है। प्रश्न यह है, क्या केंद्र सरकार 2021 की जनगणना बेरोजगारी, महंगाई, गरीबी के डर के कारण नहीं करा रही?
’अमन जायसवाल, दिल्ली विवि, दिल्ली