भीषण गरमी की चपेट में देश आ चुका है, लेकिन इससे खतरनाक है जल संकट। इससे पहले का इतना गंभीर जल संकट याद नहीं पड़ता। बहुत पहले से पर्यावरणविद इसे लेकर चेतावनी देते रहे हैं, लेकिन चाहे सरकारें हों या जनता या उद्योगपति, इसे लेकर कभी चैतन्य नजर नहीं आए। नतीजा सामने है। हालांकि अब भी देश में कई इलाके ऐसे हैं, जहां इफरात पानी है और इसकी बर्बादी भी लापरवाही की भेंट चढ़ रही है।

हम भारतीयों का स्वभाव-सा बन गया है कि मुश्किल आने पर हम चिंतित होते हैं, मगर समाधान होने उतनी ही जल्दी निश्चिंत भी। बीते वर्षों में लगातार हो रही कम वर्षा इस कमी की एक वजह जरूर है, लेकिन इससे बड़ी वजह पानी के दुरुपयोग और वर्षा के जल को संरक्षित करने के उपायों पर ध्यान नहीं देना है। बढ़ता शहरीकरण और पहाड़ों पर नष्ट होती वनस्पति दो अहम वजहें हैं। निर्जन पहाड़ों में वर्षा के जल के बह जाने से नदी कुआं, तालाबों में जो पानी वर्ष भर रिसता था वह सूख चुका है। अधिक नहीं तकरीबन 25-30 साल पहले गांवों में नदियां सदानीरा थीं तो इसके पीछे की प्रमुख वजह उनके उद्गम स्थल पहाड़ों पर घनी वनस्पति का होना है जो वर्षा के जल को संचित रखने में समर्थ थीं।

आज शहर पक्की सड़कों और ऐसे मकानों से पटे पड़े हैं जिनमें खुली जगह बिल्कुल नहीं, जिससे वर्षा का जल धरती में समा सके। वृक्षारोपण या तो हम भूल चुके हैं या जो भी इस नाम पर होता है वह बेहद औपचारिक है। सारी कवायद पौधा-रोपण में तब्दील हो चुकी है। यह भी सिर्फ कागजों में नजर आती है, जमीन से नदारद है। उथला सोचने और सतही काम करने की प्रवृत्ति ने हमें ऐसे संकट के मुहाने पर ला खड़ा किया है। हालांकि आगामी मानसून बेहतर होने की मौसम विज्ञानियों ने घोषणा कर रखी है और प्रधानमंत्री ने वर्षा के जल के संरक्षण के समुचित प्रयासों की अपील भी की है, लेकिन अगर अपीलों भर से कुछ हो गया होता तो बहुत पहले से सरकारी विज्ञापनों में जो ‘जल है तो कल है’ के वाक्य दोहराए जा रहे हैं, उनसे बात बन गई होती।

यह बात तय है कि अच्छी वर्षा का लाभ तभी लिया जा सकेगा जब पहाड़ों को वनस्पतियों, पेड़ों से न सिर्फ पाट दिया जाए, बल्कि इन पेड़ों की सतत निगरानी की जाए। अंचल में बसे आदिवासी या और लोग इन्हें न काटें। इसके लिए गैस की र्इंधन के रूप में पहुंच तत्काल बनाई जाए, ताकि उनकी नादानी पानी के संकट के रूप में आगे सामने न आए। लेकिन यह सारी कवायद सरकार और जनता दोनों के सहयोग से ही मुकाम तक लाई जा सकती है।
(श्रीश पांडेय, प्रभात विहार, सतना)
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प्रकृति का कोप
अतुल सिन्हा और पंकज रामेंदु के लेख (रविवारी, 24 अप्रैल) में देश में मौजूदा जल-संकट की भयावह तस्वीर है। पानी की अकूत संपदा वाले देश में जल-स्रोतों का सूख जाना अपने-आप में एक विरोधाभास है, लेकिन एक कड़वा यथार्थ भी। इसे अपने समय की त्रासदी ही कहेंगे कि हम आज प्रकृति की उदारता और अनुकंपा से वंचित हुए जा रहे हैं। प्रकृति का कोपभाजन बना सीधा-सादा औसत आदमी तो शायद अब तक भी यह समझ नहीं पा रहा कि चूक कहां और किससे हुई! शायद उसे यह मालूम ही नहीं कि वह क्यों बूंद-बूंद पानी के लिए तरसने को मजबूर हुआ। पर दुनिया का एक विशाल ताकतवर समाज जो विकास, रफ्तार और बाजार के नशे में चूर है, वह जानता है प्रकृति के इस तरह कुपित होने की वजहें।

यह सच है कि एक अनमोल संपदा हमारे हाथ से निकली जा रही है। भारत को स्मार्ट सिटी का देश बनाने के चक्कर में यह तो ध्यान में ही नहीं रहा कि उधर चिड़िया सारा खेत चुग गई। यों चिड़ियों के खेत चुग जाने की कहावत भी अब तो बेमानी-सी लगती है। पानी नहीं होगा तो खेत कहां बचेंगे! वे भी विकास की भेंट चढ़ते जाएंगे तो चिड़ियां बेचारी क्या चुगेंगी? खैर, बड़े लोग जो रहे हैं, उसका खमियाजा तो समाज को भुगतना ही पड़ेगा। लेकिन हम और आप तो यही कर सकते हैं कि अपने घरों, गली-मोहल्लों में जैसे-तैसे, जितना हो सके, पानी को बचाने और उसका संभाल कर इस्तेमाल करने का अभ्यास करें। घर के भीतर भी जल-प्रबंधन को अपनी आदत में घोलने की जरूरत है।
(शोभना विज, पटियाला)
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न्याय की राह
राजधानी में आयोजित एक कार्यक्रम में देश के मुख्य न्यायाधीश रो पड़े। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने नम आंखों से उन्होंने सरकार से न्यायिक व्यवस्था में खाली पदों की पीड़ा जाहिर की। इससे पहले भी समय-समय पर देश में जजों की कमी पर सवाल उठते रहे हैं, विधि आयोग की रिपोर्टों में भी यह बात हमेश उठाई गई है। लेकिन यह पहला मौका है जब देश के सर्वोच्च न्यायाधीश ने खुद इस मामले पर प्रतिक्रिया व्यक्त की है।

इस मामले में मुख्य न्यायाधीश के अति भावनात्मक पक्ष के बजाय मामले की गंभीरता की ओर देखना चाहिए। देश में लाखों मामले लंबित पड़े हैं और हजारों मामलों की सुनवाई दस साल या उससे भी ज्यादा तक चलती रहती है। इसीलिए कितने बेगुनाह सालों जेल में अपना कीमती वक्त गंवा देते हैं और अंत में छोड़ दिए जाते हैं। अगर पर्याप्त जज हों तो मामले की सुनवाई भी जल्दी होगी और सही गलत का फैसला त्वरित हो सकेगा। मामलों का बोझ नहीं होगा तो उनसे बेहतर न्याय की उम्मीद भी कर सकते हैं। अन्यथा हजारों मामलों के बोझ तले दबे न्यायाधीश कैसे काम कर पाएंगे! लाखों लोग जीवन भर गुनाहगार होने का दंश झेलते हैं, फिर एक दिन उन्हें बेगुनाह करार देकर छोड़ दिया जाता है। न्यायपालिका जब तक सशक्त नहीं होगी, हम बेहतर और त्वरित न्याय की उम्मीद नहीं कर सकते। जो सबकी सुनते हैं, उनकी भी तो कोई सुने! (विनय कुमार आइआइएमसी, नई दिल्ली)
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कविता की तरह
सुमंद्र सिंह का लेख ‘धनौल्टी की याद’ (दुनिया मेरे आगे, 25 अप्रैल) ने मुग्ध कर दिया। सपाटबयानी से आरंभ होने वाला वर्णन जैसे-जैसे आकाश से झरती हुई बर्फ के ‘सफेद अंधकार’ में डूबता गया गद्य कविता में बदलता चला गया। बर्फ के झीने आवरण से धीरे-धीरे, चुपचाप ढंकते जाते एक छोटे पहाड़ी घर में कुछ ऐसा विशेष नहीं था जो उसे अन्य ऐसे घरों से अलग करता। लेकिन एक रहस्यमयी कविता के भंवर में फंस कर डूबती हुई उसके दरवाजे तक पहुंचाने वाली पगडंडी जैसे-जैसे अदृश्य होती गई, पाठक को सम्मोहित करती गई। (अरुणेंद्र नाथ वर्मा, नोएडा)