आज हम यदि खुली हवा में सांस ले रहे हैं तो उन असंख्य शहीदों और स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की बदौलत, जिन्होंने आजादी का बीज रोपा और उसे अपने लहू से सींचा। वही बीज आजादी के चौहत्तर सालों में विशाल वटवृक्ष का रूप ले चुका है। आज भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। सात दशक के दौरान में भारत ने बेशक सभी क्षेत्रों में तरक्की की है।

विज्ञान,तकनीक, कृषि, साहित्य, खेल आदि सभी क्षेत्रों में देश का तिरंगा लहराया है। लेकिन इसके इतर हमने बहुत कुछ खोया भी है, जैसे- समन्वयवादी दृष्टिकोण, नैतिक मूल्य, धार्मिक सहिष्णुता, परस्पर प्रेम और भाईचारे का भाव आदि-आदि। ऐसे में कई गंभीर सवालों पर विचार करना जरूरी हो जाता है। जैसे आजादी के साढ़े सात दशक बाद भी आबादी का बड़ा हिस्सा विकास की मुख्य धारा से कटा है। शिक्षा का अधिकार मिला, लेकिन इसमें एकरूपता नहीं है। आज भी करोड़ों बच्चे स्कूल नहीं जा पा रहे हैं। गरीबों के लिए सरकारी स्कूल हैं, लेकिन वहां शिक्षकों की भारी कमी है। इसी तरह स्वास्थ्य सेवाओं का जो हाल है, वह किसी से छिपा नहीं है। देश का अन्नदाता किसान आज भी कर्ज और खुदकुशी के लिए मजबूर है। वैश्वीकरण की दौड़ ने लघु और कुटीर उद्योगों का बंटाधार कर दिया है।

राजनीति की बात करें तो आज भी संसद और विधान मंडलों में दागियों की भरमार है। राजनीति परिपक्वता का घोर अभाव देखने को मिल रहा है। आज भी ऊंच-नीच, लैंगिक असमानता, भाषा, क्षेत्र, जाति, वर्ग, धर्म का भेदभाव समाज में गहरी जड़ें जमाए हुए है। ऐसे में हम कैसे कहें कि हम आजाद हैं। आजादी का मूल मकसद तो कोसों पीछे छूट गया।
’प्रसिद्ध यादव, बाबुचक, पटना</p>

गरीब पर मार

भारत जैसे एक अरब चालीस करोड़ आबादी वाले देश की अर्थव्यवस्था क्या सुचारु रूप से तभी चलेगी जब यहां हर प्रतिष्ठान का निजीकरण कर दिया जाएगा? क्या लोगों की तकलीफों व बेरोजगारी की समस्या का निदान इसी में है? रेलवे, जीवन बीमा, तेल कंपनियों, बैंकों, एयर लाइनों के बाद दो अगस्त को सामान्य बीमा व्यवसाय (राष्ट्रीयकरण) संशोधन विधेयक, 2021 को ध्वनिमत से पारित कर दिया गया।

अब इस क्षेत्र की कंपनियों का मालिकाना हक धन्ना सेठों के हाथो में चला जाएगा। फिर हमने देखा ही है कैसे रेल भाड़े में जबरदस्त बढ़ोतरी की गई। यहां तक कि प्लेटफार्म टिकट को पांच रुपए से सीधे पचास रूपए कर दिया गया। यानी एक हजार फीसद की वृद्धि। भारत में आज भी सत्तर प्रतिशत आबादी की मासिक आय दस हजार या उससे भी कम है। ऐसे में क्या, हम लोग निजीकरण से बढ़ने वाले सेवाओं के मूल्य को बर्दाश्त कर पाएंगे?
’जंग बहादुर सिंह, गोलपहाड़ी (जमशेदपुर)