‘आपदा में अमानवीयता’ (संपादकीय, 12 मई) पढ़ा। कोरोना महामारी से संपूर्ण विश्व कराह रहा है। सब जगह त्राहि-त्राहि मची है। ऐसे में भी मानवता के दुश्मन सौदेबाजी करने से बाज नहीं आ रहे। अखबारों, टीवी पर दिल दहला देनें वाली खबरें पढ़ने और सुनने को मिल रही हैं। एक तरफ हमारे डॉक्टर, स्वास्थ्य विभाग से जुड़े प्रत्येक कर्मचारी, अधिकारी, समाजसेवी संस्थाएं, पुलिस विभाग और अन्य सभी सेवा भाव के साथ अपने कर्तव्य का निर्वहन कर रहे हैं, अनेक समाज सेवी संस्थाएं रात-दिन लग कर अपनी सेवाएं दे रहे हैं और दूसरी और कुछ लोग जो मरीजों की बेबसी, विवशता और मजबूरी का फायदा उठाने से नहीं चूक रहे। ये कहीं इलाज में जरूरी इंजेक्शन का तो कहीं सांसों के लिए जरूरी प्राणवायु आॅक्सीजन सिलेंडर का सौदा कर रहे हैं। इनकी आत्मा मानो मर गई है, संवेदना शून्य हो गई है।

ऐसे लोगों को जलती असंख्य चिताएं, अपनों के खोने के दर्द से बिलखते परिजनों के आंसू, उखड़ती सांसों की बेबसी, आॅक्सीजन सिलेंडर के लिए भागते परिजनों का दर्द क्या नहीं महसूस होता? मरीजों को अस्पताल तक पहुंचाने वाली एंबुलेंस की सौदेबाजी सुन कर और पढ़ कर मन अत्यंत द्रवित हो जाता है। क्या इन लोगों की आत्मा पत्थर हो गई है? क्या इनके परिवार नहीं हैं, जो ऐसे लोग किसी की मजबूरी का सौदा करने में नहीं हिचक रहे। जीवन रक्षक दवाओं की सौदेबाजी करते ये लोग क्या मनुष्य कहलाने के अधिकारी हैं?

एक खबर आई कि जीवन रक्षक इंजेक्शन रेमेडेसिविर में मिलावट और फिर उन्हें ऊंचे दामों पर बेचना तो कहीं कोरोना संक्रमित के दाह संस्कार में भी पैसे कमाने का मोह ये लोग नहीं छोड़ पा रहे। बीमारी से टूटा व्यक्ति और इनके दर्द और बेबसी से खिलवाड़ करते ये मानव गिद्ध। अस्पताल की चौखट तक पहुंचते आॅक्सीजन के अभाव में लोग दम तोड़ रहे हैं और ये मौत के सौदागर बिस्तर का सौदा पिछले दरवाजे से कर रहे हैं। मानवता कराह उठी है, पर इनका दिल नहीं पसीजता। ऐसा लगता है मानो इन्हें न कानून का डर है, न किसी और बात का। इन सब घटनाओं को देखकर लगता है कि कैसे युग में जी रहें है हम? आज सेवा और समर्पण भाव से व्यापक आवश्यकता है। लेकिन इंसानियत के दुश्मन लोगों के जीवन से खिलवाड़ कर रहे हैं। ऐसे लोगों के खिलाफ कड़ा रुख अपनाना चाहिए, जिससे इनके अमानवीय कृत्यों पर लगाम लग सके।
’अनिता वर्मा, कोटा, राजस्थान

शिक्षा से दूर

भारत में पहले ही शिक्षा का स्तर कम था और जो था, वह भी समाप्त होता जा रहा है। कोरोना महामारी को फैलते हुए करीब डेढ़ वर्ष होने को आए। तब से स्कूल, कॉलेज बंद हैं। घर की आर्थिक स्थिति ठीक न होने के कारण भारत में सभी बच्चे उच्च स्तर की शिक्षा ग्रहण नहीं कर पाते और अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ देते हैं। जो लोग पढ़ाई पूरी करते हैं, वे भी इतने समय से बंद होने के कारण पढ़ाई छोड़ने को मजबूर हैं।

आज बच्चे इंतजार कर रहे हैं कि कब महामारी खत्म हो और शिक्षा व्यवस्था फिर से पहले की तरह चलने लगे। मगर इंतजार इतना लंबा हो गया और उनके घर की स्थिति अब ऐसी नहीं बची कि वे आगे की पढ़ाई कर सकें। गांव के बच्चे बड़ी मुश्किल से पढ़ाई करने के लिए शहर जा पाते हैं। अब जब कुछ काफी समय से बंद है और बच्चे घर के कामों में व्यस्त हो गए हैं तो क्या वे दुबारा लौट पाएंगे अपनी शिक्षा की ओर।

पिछले साल से आॅनलाइन कक्षाएं चल रही हैं, लेकिन कुछ लोगों के पास स्मार्टफोन या कंप्यूटर जैसे संसाधन उपलब्ध न होने के कारण उनके बच्चे शिक्षा से दूर होते जा रहे हैं तो कुछ लोग नेटवर्क सही न होने के कारण पिछड़ते जा रहे हैं। सवाल है कि इस हालत में कैसी पीढ़ी तैयार होगी? आॅनलाइन पढ़ाई की सीमा केवल संसाधनों की वजह से एक बड़ी आबादी को शिक्षा से दूर नहीं करेगी, बल्कि इसमें पढ़ाई की गुणवत्ता और ग्राह्यता का जो स्तर होगा, वह भी बच्चों को एक कमजोर व्यक्तित्व के रूप में विकसित करेगा। सबसे बड़ा सवाल है कि शिक्षा का अधिकार लागू होने के समांतर हम एक बड़ी आबादी को शिक्षा से दूर होने को किस हद तक स्वीकार करेंगे!
’रिंकू जायसवाल, गोपला सिंगरौली, मप्र