वित्त वर्ष 2022 के निजीकरण अभियान के लिए 1.75 लाख करोड़ रुपए के विनिवेश लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित करते हुए वित्त मंत्रालय ने सार्वजनिक क्षेत्र के दो बैंकों को बैंकिंग कंपनियां (उपक्रमों का अधिग्रहण और हस्तांतरण) अधिनियम, 1970 और 1980 से बाहर लाने के लिए सरकार विधायी संशोधन की तैयारी में है। आइडीबीआइ बैंक का निजीकरण भी प्रक्रियाधीन है। सवाल है कि गत पचास वर्षों से देश कि अर्थव्यवस्था की धुरी रहे व करोड़ों गरीबों और हाशिए के लोगों के जीवन स्तर में सुधार लाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे सरकारी बैंकों के प्रति सरकार का ऐसा रुख क्यों है? एक ऐसे देश में जहां औसत नागरिक सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के साथ सबसे अधिक आरामदायक और सुलभ बैंकिंग सुविधा का उपभोग कर रहा है, बैंकों का निजीकरण क्यों किया जा रहा है? ये सवाल आज आम बैंक कर्मचारियों और आम जनता के मन में हैं।

बैंकों के निजीकरण के पक्ष में ये तर्क दिए जा रहे हैं कि बेसल समिति द्वारा निर्धारित नए पूंजी पर्याप्तता मानदंडों को पूरा करने के लिए बैंकों को बड़ी पूंजी की आवश्यकता है जो सरकार के लिए लगातार मुश्किल हो रहा है। दूसरा यह कि यदि बैंकों को निजी क्षेत्र के नियंत्रण में कर दिया जाए तो उनके प्रदर्शन में सुधार होगा और वो डूबत कर्जों और मुनाफे की समस्या से उबर सकते हैं। तीसरा तर्क यह है कि ‘व्यवसाय करना सरकार का काम नहीं है’।
सवाल है कि क्या निजी क्षेत्र का स्वामित्व स्वत: ही अधिक पारदर्शिता और दक्षता की गारंटी देता है? हमें यह भी याद रखना होगा कि 1948 से 1968 के बीच कुल सात सौ से ज्यादा निजी बैंक विफल हुए थे। 1969 के बाद से छत्तीस निजी बैंकों को कुप्रबंधन एवं बदनीयती के कारण सार्वजनिक हित में मोरेटोरियम में रखा गया और वे अस्तित्व से बाहर हो गए हैं। इन बैंकों के प्रमोटरों ने जनता की गाढ़ी कमाई को खुले आम लूटा। वर्ष 1985 के बाद से अब तक पच्चीस से अधिक निजी बैंकों का दिवाला निकलने पर उनका विलय राष्ट्रीयकृत बैंकों में किया गया ताकि आम जनता का पैसा सुरक्षित रहे।

बैंकिंग क्षेत्र में निजी क्षेत्र की पुन: मौजूदगी के पच्चीस साल होने के बावजूद आज भी सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के पास तिहत्तर प्रतिशत जमा और लगभग साठ फीसद कर्ज का हिस्सा होना यह दशार्ता है कि लोगों का विश्वास आज भी निजी से ज्यादा सरकारी बैंकों पर है। आज तक किसी भी सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक में जनता का एक भी पैसा डूबा नहीं है। निजी क्षेत्र के उद्योगपति बैंकों के निजीकरण के बाद उनका उपयोग सार्वजनिक हित में करेंगे ऐसा कोई भी उदाहरण किसी भी निजी क्षेत्र का हमारे सामने नहीं है। पिछले कुछ सालों में जिस तरह आईसीआईसीआई बैंक, यस बैंक, एक्सिस बैंक और लक्ष्मी विलास बैंक की गड़बड़ियां सामने आईं, उससे यह तर्क कमजोर पड़ता है कि निजी बैंकों में बेहतर काम होता है।

कमाल की बात यह है कि बैंकों को आर्थिक संकट में जिन उद्योगपतियों ने डाला, निजीकरण के तहत इन बैंकों को एक तरह से उनके ही कब्जे में देने की बातें हो रही है। कुछ कंपनियों या कुछ बाहरी कारणों से हुए नुकसान से थक कर सरकारी बैंकों का निजीकरण कर देना समस्या को और भी बड़ा कर देना होगा। ऐसा करने पर इसकी जद में आम लोग भी आ जाएंगे। यह धारणा कि एक गतिशील निजी क्षेत्र अर्थव्यवस्था को बेहतर समर्थन देने के लिए एक स्वस्थ, कुशल बैंकिंग प्रणाली को प्रोत्साहित करेगा, उल्टी भी पड़ सकती है। निजीकरण के राजनीति से प्रेरित होने और उसके द्वारा विभिन्न हित समूहों या व्यक्तियों के निहित स्वार्थों की सेवा करने का जोखिम हमेशा बना रहता है। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के प्रबंधन में सुधार समय की मांग है। लेकिन क्या सुधार के लिए निजीकरण ही बेहतर विकल्प है? इसके लिए आवश्यक है कि इन बैंकों के संचालन और परिचालन में राजनीतिक दखलंदाजी पूरी तरह से समाप्त हो, बोर्ड में पेशेवर लोगों की नियुक्ति हो और फिर सरकार का नियंत्रण न्यूनतम कर दिया जाए।
’अरविंद पोरवाल, दिल्ली</p>