तानाशाह कभी चुनाव के जरिए नहीं हटते। उनका तख्ता पलट होता है या उनकी हत्या होती है। हिटलर से लेकर मुसोलिनी तक और जनरल जिया उल हक से लेकर तमाम उदाहरण हमने देखे हैं कि उनकी नजर में लोकतंत्र और चुनावी प्रक्रिया का क्या अर्थ है!लेकिन हमने यह भी देखा कि सभी तानाशाहों की एक ही गति हुई। इसलिए जब बीते रविवार को बेलारूस में चुनाव संपन्न हुआ तो एकबारगी लगा था कि विपक्ष की सैंतीस वर्षीय स्वेतलाना तिखानोव्स्काया इस बार टक्कर देंगी। मगर रविवार देर शाम ही घोषणा हो गई के लुकाशेंको को अस्सी फीसद और स्वेतलाना को मात्र सात फीसद मत मिला है।

अंतिम नतीजा भी यही आया। पहले भी पारदर्शिता पर सवाल उठाया जा रहा था और अब इन चुनावी नतीजों की विश्वसनीयता का अंदाजा लगाया जा सकता है। हालांकि यह उसी समय स्पष्ट हो गया था, जब पूरे देश में इंटरनेट सेवा दो दिनों के लिए बंद कर दी गई थी। एक भी निष्पक्ष विदेशी प्रेक्षकों को देश में घुसने नहीं दिया गया। अब पिछले छब्बीस साल से लगा धब्बा ‘यूरोप के अंतिम तानाशाही’ का दर्जा अगले पांच वर्षों तक और बना रहेगा।
’जंग बहादुर सिंह, गोलपहाड़ी, जमशेदपुर