तमिलनाडु के त्रिपुर की घटना पर संपादकीय टिप्पणी (जाति की हिंसा, 16 मार्च) विचारोत्तेजक है। यह विडंबना है कि वर्तमान दौर में जहां एक तरफ जाति को संकीर्ण सोच की निशानी और व्यक्ति के साथ-साथ राष्ट्र के विकास की बड़ी बाधा माना जा रहा है, वहीं आमतौर पर सभी राजनीतिक दल अपना हित साधने के लिए लोगों को जाति-संप्रदाय के काले चश्मे बांट रहे हैं।
इससे भी दुखद यह कि जिन जातियों को दलित, शोषित या पिछड़ी जाति कहा जाता है, उनके अंदर भी आपस में छोटे-बड़े की सोच इतनी गहरी है (फिर स्त्री-पुरुष का भारी भेद तो है ही) कि ‘जातीय स्वाभिमान’ की खातिर अपनों तक की बेरहमी से हत्या की घटनाएं आए दिन घटती हैं, जैसा कि त्रिपुर में हुआ। दलित समुदाय के इंजीनियरिंग के छात्र और अति पिछड़ी जाति की युवती ने अपनी मर्जी से विवाह किया तो लड़की के परिवार वालों ने दिन-दहाड़े, बाजार के इलाके में उन पर हमला करके लड़के की हत्या कर दी और लड़की को बुरी तरह घायल कर दिया।
भारत का संविधान हर नागरिक को समानता और स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार प्रदान करता है, जिसकी रक्षा करना राज्य की संवैधानिक जिम्मेदारी है। लेकिन ऐसे प्रावधानों का क्या औचित्य या लाभ, अगर वास्तविक धरातल त्रिपुर जैसा हो? तीसरी विडंबना यह है कि वर्षों पहले अपना गांव छोड़ कर शहरों-महानगरों में रहने वाले लोग आज भी अक्सर गांवों के प्रति आसक्त दिखते हैं और अपने मन में गांव का बड़ा ही सुंदर चित्र बसाए रहते हैं, जो सच नहीं है।
वर्षों पहले मुंबई के टाटा इंस्टीट्यूट आॅफ सोशल साइंसेज में पढ़ रहे एक दलित छात्र से हमारा विचार-विमर्श हुआ था, जो अपने गांव वापस नहीं जाना चाहता था। उसने कहा था कि मुंबई में किसी को मेरी जाति से मतलब नहीं, लेकिन अपने गांव में, चाहे मैं कितना ही बड़ा क्यों न बन जाऊं, मेरी पुरानी पहचान कभी नहीं मिटेगी।
’कमल कुमार जोशी, अल्मोड़ा, उत्तराखंड</p>