शिक्षा के निजीकरण के इस दौर में बस्ते का बोझ हल्का करने की बात एक सपना ही हो गई है। बच्चे के मानसिक तनाव को कम करने के प्रयास निरर्थक नजर आ रहे है। लेकिन हाल ही में मानव संसाधन विकास मंत्रालय की ओर से तैयार नए नियमों के अनुसार भविष्य में कक्षा दो तक के बच्चों को बस्ता नहीं ढोना पड़ेगा। यह एक सराहनीय पहल है। एक बात तो साफ है कि सरकारी स्कूल वालों के बस्ते निजी स्कूल वालों के बस्तों से हल्के हैं। सरकारी स्कूलों में प्रारंभिक कक्षाओं में भाषा, गणित के अतिरिक्त एक या दो पुस्तकें हैं। लेकिन निजी स्कूलों के बस्तों का भार बढ़ता जा रहा है। इसके पीछे ज्ञानवृद्धि का कोई कारण नहीं है, बल्कि व्यापारिक रुचि ही प्रमुख है।
मोहल्ला ब्रांड अंग्रेजी स्कूलों के लिए तो भारी बस्ते शुभ लाभ कर रहे हैं। बच्चों के कोमल मन-मस्तिष्क पर गैर-जरूरी बोझ लादा जा रहा है। माता-पिता भी होमवर्क की चक्की में पिस रहे हैं। बच्चे की समझ में न आने पर उसे ट्यूशन के हवाले कर दिया जाता है और अपनी प्रारंभिक उम्र से ही बच्चा रटी-रटाई शिक्षा लेने पर मजबूर हो जाता है। उसकी मानसिक चेतना कहीं दब कर रह जाती है। अभिभावक भी सरकारी स्कूलों की खराब होती स्थिति को देखते हुए ही बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में डालते हैं। देखा जाए तो अभिभावक ही बस्ते के बोझ को बढ़ाने में योगदान दे रहे हैं। अत: बस्ते के बोझ को कम करने के लिए शिक्षा विभाग को आगे आकर पब्लिक स्कूलों की मनमानी पर अंकुश लगाना होगा। (रमेश शर्मा, केशवपुरम, दिल्ली)
…………………..
शर्मसार हुआ देश
विगत 9 जनवरी की शाम जो कुछ जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में हुआ उसने देश को शर्मसार कर दिया। संसद पर हमले के लिए जिम्मेदार आंतकी अफजल गुरुको कुछ सिरफिरे तत्त्वों ने शहीद का दर्जा दे दिया। और सुप्रीम कोर्ट के न्याय के खिलाफ आवाज उठा दी, कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने अफजल गुरुके साथ न्याय नहीं किया। आखिर ये कौन हैं जो देश के सर्वोच्च न्यायालय के खिलाफ बोल रहे हैं और इस देश के अंदर पाकिस्तान के जिंदाबाद के नारे लगा रहे हैं, यह सब उस देश के लिए कर रहे हैं जिसने हमारे देश के जवानों और नागरिकों को सिवाय मौत के कुछ भी नहीं दिया है। यह कैसी अभिव्यक्ति की आजादी की बात ये छात्र कर रहे हैं? समय आ गया है कि सत्तापक्ष में और विपक्ष में बैठे लोग राजनीति को भूल कर ऐसा काम करें कि भविष्य में भारत के किसी भी विश्वविद्यालय में किसी आतंकी के पक्ष में कोई आवाज न उठे।
(शिप्रा श्रीवास्तव, रावतपुर, कानपुर नगर)
………………..
रोजगार की राह
किसी भी व्यक्ति को सुचारू रूप से जीवनयापन करने के लिए रोजगार आवश्यक होता है। इस बात को ध्यान में रखते हुए आजादी के बाद से ही सरकारों ने रोजगार सृजन को अपनी आर्थिक नीतियों में महत्त्वपूर्ण स्थान दिया। शुरू के दो दशकों तक सरकार इसके लिए महालनोबिस मॉडल के ट्रिकल डाउन प्रभाव को लेकर आशान्वित थी। ट्रिकल डाउन का आशय है कि अगर भारी उद्योग और पूंजीगत वस्तुओं के उत्पादन में निवेश किया जाए तो यह मध्यम और निचले वर्ग के लिए भी रोजगार सृजन और उन्हें लाभान्वित करता है।
पर 1973-74 में पाया गया कि ट्रिकल डाउन प्रभाव पर्याप्त मात्रा में रोजगार सृजन करने में विफल रहा। इस कारण आपातकाल के बाद जब जनता पार्टी की सरकार आई तो उसने प्रत्यक्ष रूप से रोजगार सृजन करने और गरीबी उन्मूलन वाली योजनाएं- समन्वित ग्राम विकास कार्यक्रम और ग्रामीण एवं युवा स्वरोजगार प्रशिक्षण प्रारंभ किया। उसके बाद 1980 के दशक में कांग्रेस सरकार ने भी इसे जारी रखा।
1991 के आर्थिक सुधार के बाद यह माना गया कि तीव्र आर्थिक विकास अत्यधिक रोजगार सृजन करेगा। दो दशकों में भारत की आर्थिक विकास दर अधिक तो रही, पर इसमें सेवा क्षेत्र का योगदान सर्वाधिक रहा। इसलिए तीव्र विकास दर भी वांछित मात्रा में रोजगार सृजन करने में नाकाम रही।
इस स्थिति को देखते हुए बारहवीं पंचवर्षीय योजना में एक नई विनिर्माण नीति के तहत विनिर्माण क्षेत्र में रोजगार सृजन करने पर बल दिया गया है। इसके अलावा वर्तमान सरकार की महत्त्वाकांक्षी मेक इन इंडिया कार्यक्रम और स्किल इंडिया मिशन भारत को एक विनिर्माण हब बनाने और रोजगार सृजन की दिशा में सराहनीय कदम है। (प्रदीप वर्मा, जेएनयू, नई दिल्ली)
………………
दोहरा मापदंड
देश के सर्वोच्च शैक्षणिक संस्थानों में से एक है जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय। इस संस्था से निकले हजारों छात्रों ने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पहचान बनाई। न केवल राजनीति में बल्कि समाजशास्त्र, विज्ञान, अर्थशास्त्र सहित कई विषयों में ख्याति अर्जित कर उन्होंने विश्वविद्यालय की भी प्रतिष्ठा बढ़ाई। लेकिन इधर कुछ दिनों से इस विश्वविद्यालय के अंदर की गतिविधियों पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं। इसके लिए सबसे पहले विश्वविद्यालय प्रशासन एवं अन्य एजेंसियों से जांच-पड़ताल होनी चाहिए। केवल सवाल खड़े करने से कुछ हासिल नहीं होने वाला है। पिछले लगातार कई वर्षों से विश्वविद्यालय को बदनाम करने की साजिश की जाती रही है। नौ फरवरी को यह मौका मिल गया और जेएनयू के अध्यक्ष कन्हैया कुमार को गिरफ्तार कर देशद्रोह का आरोप मढ़ दिया गया।
लेकिन सवाल यह है कि इसी देश के कई राजनीतिकों ने कई बार संविधान के विपरीत और देश को तोड़ने वाले बयान दिए, उनके विरुद्ध नरमी क्यों? क्या गोडसे की मूर्ति लगाने की इजाजत हमारा संविधान देता है? महात्मा गांधी और नेहरू से लेकर भगतसिंह की चौक-चौराहों पर निंदा करते लोग नहीं थकते, क्या यह राष्ट्र-भावना के विरुद्ध नहीं है? कश्मीर में रोज पकिस्तान का झंडा लहराया जाता है और राज्य की पीडीपी जैसी पार्टी इस पर नरमी बरतती है! देश की अस्मिता और संविधान को ग्रहण करना प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है। इसके विरुद्ध किसी तरह की कार्रवाई का विरोध होना ही चाहिए। लेकिन इसके लिए दोहरा मानदंड खतरनाक है इसका खयाल भी सत्ता में बैठे लोगों को होना चाहिए।
(अशोक कुमार, तेघड़ा, बेगूसराय)