उपलब्ध होने का मतलब है कि इनकी पहुंच समुदाय के हर व्यक्ति तक हो। इन शब्दों में अंत्योदय का सिद्धांत निहित होना चाहिए। दूसरा कि यह हर वर्ग के बजट में उपलब्ध हो तो निश्चित तौर पर वह समाज हर मोर्चे पर सशक्त बन जाता है।

लेकिन हम देख रहे हैं कि हमारे देश में इन दो सुविधाओं के नाम पर किस तरीके की लूटमार मची हुई है। ये सुविधाएं व्यक्ति के मौलिक अधिकार हैं, लेकिन बाजारवाद और भ्रष्टाचार की चपेट में इन संस्थाओं का संचालन करने वालों ने इसे अपनी आय का जरिया बना लिया है। अगर आम आदमी अस्पतालों में प्रवेश कर जाए तो हालत यह है कि आधा बीमार वह अस्पतालों के आर्थिक बोझ से ही हो जाता है। इस कदर लूट मची हुई है कि लोगों के हाथों में नाना प्रकार की जांच रिपोर्ट के नाम पर मनमानी वसूली की जा रही है।

सभी इस तथ्य से भलीभांति परिचित हैं कि प्रसव होना एक प्राकृतिक प्रक्रिया है। मनुष्य को छोड़कर सभी जीवों में प्राकृतिक रूप से यह होता भी है। लेकिन मनुष्य ही है कि इसमें आपरेशन का सहारा लेता है। अस्पतालों में अब तो मानो सामान्य प्रसव कराने की व्यवस्था ही खत्म हो गई हो। कई बार अस्पतालों को या डाक्टरों को ऐसा लगता है कि मरीज को अस्पताल में भर्ती करने की आवश्यकता नहीं है, फिर भी यह अपनी कमाई बढ़ाने के लिए मरीज को जीवन का डर दिखाकर अस्पताल में भर्ती कर लिया जाता है। इसके अलावा, उसके अंतिम भुगतान में अनेक प्रकार के फिजूल खर्च जोड़ दिए जाते हैं, जिनका बीमारी से कोई संबंध नहीं होता।

दूसरी ओर, स्कूलों में बच्चों को इसलिए भेजा जाता है, ताकि हमारे बच्चों का बौद्धिक विकास हो। शिक्षा का केवल एक ही मकसद होता है कि व्यक्ति को बौद्धिक स्तर पर मजबूत बनाया जाए। लेकिन यह साफ देखा जा सकता है कि कैसे स्कूल संचालक इसके माध्यम से धन्ना सेठ बनने का ख्वाब देखते हैं। इसके अतिरिक्त स्कूलों में भिन्न-भिन्न प्रकार की गतिविधियां बताकर अभिभावकों से पैसा वसूला जाता है। कुछ स्कूलों में तो यह परंपरा भी चल पड़ी है कि उन्हीं बच्चों को प्रवेश दिया जाएगा, जिनके माता-पिता को भी बेहतर अंग्रेजी आती हो।

सोच कर देखा जाए तो यह कितना डरावना है? क्या इसका अर्थ है मान लिया जाए कि असंगठित क्षेत्रों में कार्य करने वाले लोग या फिर मजदूरों या गरीबों के बच्चे इन स्कूलों में प्रवेश लेने के पात्र नहीं है?इस गलाकाट प्रतियोगिता के दौर में कागजों पर बेहतर प्रतिशत दिलाने की जिम्मेदारी हर कोई लेने को तैयार है, लेकिन क्या कोई ऐसा संस्थान या शिक्षक है जो इस बात की भी जिम्मेदारी ले कि हम विद्यार्थियों का बौद्धिक निर्माण भी करेंगे?
सौरव बुंदेला, भोपाल, मप्र।

विभाजित एकता

हमारे देश में जब भी चुनावों की आहट होती है, तभी विपक्षी एकता की चर्चा भी होने लगती है। इसी क्रम में 2024 में लोकसभा के चुनाव नजदीक आ रहे हैं तो अभी से विपक्ष को एकजुट करने की कोशिशें शुरू हो गई हैं। 1970 से पहले ऐसा कुछ भी नहीं था। तब लगभग सभी राज्यों और केंद्र में कांग्रेस का शासन था। 1975 में इंदिरा गांधी ने जब देश पर आपातकाल थोपा, तब उसके बाद उनके विरोधी एकजुट होने शुरू हुए। लेकिन विपक्ष की यह एकता टिकाऊ साबित नहीं हो सकी। इसकी वजह सभी नेताओं की अपनी-अपनी महत्त्वाकांक्षाएं थीं।

लेकिन 1980 के बाद भारतीय राजनीति में सबसे बड़ा परिवर्तन यह आया कि कांग्रेस की जमीन हर राज्य में सिकुड़ती चली गई और क्षेत्रीय दल उस जमीन पर कब्जा करते चले गए। हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश जैसे कई राज्य ऐसे हैं, जहां कांग्रेस दशकों से सत्ता से बाहर है। ऐसे ही लोकसभा में भी कांग्रेस का ग्राफ लगातार नीचे आता गया।

पिछले लगभग दस वर्षों से केंद्र में भाजपा की सरकार है। राज्यों में कहीं भाजपा तो कहीं कांग्रेस तो कहीं क्षेत्रीय दलों की सरकार है। ऐसा भी नहीं है कि भाजपा से आम आदमी की उम्मीदें पूरी हो गई हों। लेकिन विपक्षी एकता का कोई टिकाऊ सूत्र भी दिखाई नहीं दे रहा। अभी तक विपक्ष किसी एक राज्य में भी एकजुट होकर चुनाव नहीं लड़ सका, तो यह पूरे देश की बात है।

यह भी है कि एक-दो दलों को छोड़कर सभी दल कभी न कभी भाजपा के साथ गठबंधन कर चुके हैं। विपक्षी एकता से पहले ऐसे दलों की विश्वसनीयता पर भी लोग सवाल करेंगे। विपक्ष के जो नेता एकता की बात कर रहे हैं, उनके सामने अभी बहुत से अगर-मगर, किंतु-परंतु हैं। जो नेता एकता का प्रयास कर रहे हैं, जनता उन पर कहां तक भरोसा करेगी, यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा।
चरनजीत अरोड़ा, नरेला, दिल्ली।

ठगी की तकनीक

बीते दिनों खबर आई थी कि जब तक सामने वाले से फोन पर या मिलकर बात नहीं होती है, तब तक किसी को पैसे नहीं भेजना है। परिवार में ही एक सदस्य का मोबाइल हैक कर लिया गया था और उसे पता भी नहीं चला था। हैकिंग के एक दो दिन बाद दोस्तों और घर के ही अन्य सदस्यों के पास उनके संदेश आने लगे कि मुझे कुछ पैसों की जरूरत है, भेज दीजिए।

किसी के पास दस हजार रुपए तो किसी के पास पंद्रह हजार का। लेकिन जब संयोग से उनसे बात की गई तो पता चला उन्होंने नहीं मंगाया है, इसलिए पैसा नहीं भेजा गया। लेकिन तब तक कई अन्य दोस्तों ने भेज दिए थे। पता चलने पर ठीक कराया गया। यह महज एक उदाहरण है। इस तरह की ठगी रोजाना हो रही है।

तकनीकी सुविधा के लिए ठगी का संजाल खड़ा कर लिया गया है। जरूरत है कि आम लोग किसी भी घर या दोस्त या कार्यालय से केवल संदेश आने पर पैसे नहीं भेजें, अन्यथा इस अलग तरह की साइबर ठगी का शिकार बन जाने पर हैरानी नहीं होगी।
वीएस भारतीय, इलाहाबाद विवि ।