यह तब होगा, जब जनता किसी संकुचित मानसिकता वाले लोगों के बहकावे में न आकर आस्था के क्लेश से बचते हुए अपने भविष्य को बेहतर बनाएं और देश की उन्नति में हिस्सेदारी करे। जनता को समझना चाहिए कि उसकी प्राथमिक जरूरत अच्छी और सस्ती शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाएं, साफ-सफाई, महिला सशक्तिकरण, महिला सुरक्षा और रोजगार है, न कि विभिन्न आस्था को लेकर आपसी कलह और धार्मिक कोलाहल।
कोई भी देश संसार में तब पहचाना जाता है, जब उस देश की जनता संतुष्ट और सुरक्षित हो। हमें भी डमीनी मुद्दों पर ध्यान देना होगा और संवेदनशील मुद्दों का तर्कपूर्ण हल करना होगा। हमें अपनी ऊर्जा सकारात्मक मुद्दों पर लगानी चाहिए, नकारात्मक राजनीति तभी तक जीवित रहती है, जब तक विवेकहीन लोगों के वर्ग का उनको समर्थन मिलता रहता है।
वैश्विक स्तर पर अगर आप परिस्थितियों का मूल्यांकन करें तो पाएंगे की राजनीति एक व्यापार है और इस व्यापार का स्तंभ है धर्म। अपनी आस्था और संस्कारों पर विश्वास करके चलने वाले और सादा जीवन व्यतीत करने वाले मासूम लोग, जिन्हें जनता कहा जाता है, अक्सर नकारात्मक और स्वार्थी विचारधारा वाले वर्ग की महत्त्वाकांक्षाओं को पूरा करने चक्कर में उनकी राजनीति का शिकार होकर अपने संस्कारों, आदर्शों और जान-माल से हाथ धो बैठते हैं।
पूरे चक्र में केवल जनता का शोषण होता है, बाकी लोग हाथ झाड़ कर निकल जाते हैं। केवल भारत में ही नहीं, सभी देशों में सत्ता पाने और वर्चस्व दिखाने की होड़ लगी हुई है, जिसमें सबसे अधिक नुकसान जनता का ही होता है। मतलब जिनको आधार बना कर चुनाव लड़ा जाता है, वादे किये जाते हैं और चुनाव जीता जाता है, अंत में उन्हीं को सबसे लाचार कर दिया जाता है। कब तक जनता का शोषण होता रहेगा, कभी तरक्की के सपने तो कभी नौकरी का रास्ता, कभी बेरोजगारी मिटाने का सपना दिखा कर तो कभी महंगाई कम करने का आश्वासन देकर और कभी आस्था के नाम पर उनको उकसा कर।
अब स्वयं जनता को इसका विश्लेषण करना होगा कि उन्हें किन बातों पर राजनीतिक दलों का साथ देना है। जनता को सवाल करना सीखना चाहिए, वरना भविष्य अंधकारमय हो जाएगा। अफसोस की बात है कि देश में हर मुद्दे को धार्मिक रंग देकर जमीनी और आवश्यक मुद्दों से भटका दिया जाता है। कभी फिल्म को लेकर विवाद, कभी किसी मंत्री के आधारहीन कथन को लेकर विवाद, कभी पांच सौ साल पहले की इमारतों को लेकर विवाद, कभी मंदिर-मस्जिद पर विवाद, कभी गैर-मजहब के बीच शादी को लेकर विवाद।
क्या इन विवादों को पैदा करने वाले समूहों ने शिक्षा पर कोई सवाल उठाया? स्वास्थ्य पर सकारात्मक पहल की? गंगा-जमुनी संस्कृति के लिए कोई एजेंडा तय किया? आधारहीन मुद्दों को उठाने वालों के खिलाफ कार्रवाई की? सवाल बहुत हैं, लेकिन क्या हममें मूल्यांकन करने की क्षमता है? देश आखिर किन बातों से बनता है?
’अहमद फौजान, खुर्रमनगर, लखनऊ, उप्र