शायद कुछ बढ़ती उम्र के कारण, कुछ गलत संगतियों में पड़ने के कारण। नशे में ही वे अपना लक्ष्य टटोल रहे हैं। बढ़ती बेरोजगारी से छुटकारा पाने छोटे-छोटे गावों, कस्बों से बड़ी-बड़ी संस्थाओं में एक लक्ष्य लेकर प्रवेश लेते हैं, फिर वे इन्हीं शहरों की चकाचौंध में विलीन हो जाते हैं गलत संगतियों मे फंस कर। जो कल तक चाय नहीं पीते थे, उन्हें आज अगर चाय के साथ सुट्टा नहीं मिले तो उन्हें अपनी सुबह अधूरी लगने लगती है। कइयों की हालत ऐसी होती है कि दिन भर गांजा, सुट्टा, शराब के नशे में रहते हैं।

आज के युवाओं ने नए ‘भगवान’ का निर्माण किया है जो असल में ऐसे हैं नहीं। गांजा पीते समय भगवान शिव के जयकारे के साथ वे माचिस की तिली से आग जलाते हैं। वह दृश्य ऐसा प्रतीत होता है मानो बस अब कुछ क्षणों के बाद ‘भगवान’ प्रकट होकर इन्हें मनचाहा वरदान देंगे। जयकारा लगाते समय वे अपने आप को संतुष्ट करते हैं कि हम कोई भी गलत काम नहीं कर रहे और पूछने वाले को अपने आप जवाब दे देते हैं कि यह तो शिव का प्रसाद है। ऐसे लोग कितने अच्छे तरीके से अपनी वास्तविकता उजागर कर रहे हैं।

हाल के वर्षों में ऐसे भक्तों की तादाद में तेजी से बढ़ोतरी आई है। अगर इस युवा पीढ़ी को इस तरह के नशेड़ी भक्तों से नहीं बचाया गया तो ये अपनी आदतों से ग्रस्त व्यवहार की वजह से एक दिन ऐसा समाज बना देंगे, जिसमें ऐसे ही लोगों की तादाद अधिक होगी। ये लोग भगवान और भक्ति की धारणा को भी विकृत कर देंगे। युवाओं का प्रधान कहे जाने वाले भारत में सक्षम और काबिल युवाओं का काल पड़ जाएगा।
’आनंद पांडिया, जयपुर, राजस्थान

लोकतंत्र की आवाज

इस समय दोनों हाथों से काम करने वाले मेहनतकश ही नहीं, देश का हर जागरूक और संवेदनशील नागरिक राजधानी की सीमाओं पर जूझ रहे किसानों के दुख से व्याकुल है। कोई व्यापारी है या नौकरीपेशा, लेखन-शिक्षा, चिकित्सा- किधर जुड़ा है, कोई फर्क नहीं पड़ता। ग्रामीण-शहरी, कम या अधिक शिक्षा पाए, न पाए हुए लोग, निर्धन-धनवान, बच्चे-बूढ़े-जवान, हिंदू-सिख-ईसाई-मुसलमान, सामूहिक चेतना के केंद्र में जैसे किसान ही हो विराजमान। अभी पिछले ही साल वाले जामिया मिल्लिया और जेएनयू के हृदयविदारक परिदृश्य, ठिठुराते जाड़ों वाले शाहीनबाग, दिल्ली के दंगों की आग- वे सब घटनाक्रम स्मृति-पटल से मिटाए नहीं मिट रहे।

अधिक समय नहीं हुआ जब हमने शहरों से गांवों तक हजारों मील का सफर तय करते अपने प्रवासी मजदूरों का मंजर देखा। और अब एक विराट संघर्ष, खेती-किसानी का, जमीन का, भूख और रोटी का। कौन कहता है कि यह संघर्ष केवल किसान का है या मजदूर का है या देश के किसी छोटे-से हिस्से का है! एक बड़ा अजीब सवाल यह कि किसानों को जिद क्यों है? मेरी राय है कि जिद को किसान पर आरोपित करना किसान को अपमानित करना है।
ऐसा नहीं कि किसान अपनी स्थिति में सुधार नहीं चाहता।

पर कृषि-सुधारों को लेकर किसान की प्राथमिकताएं अलग हो सकती थीं, जिन पर किसान-संगठनों के साथ विचार-विमर्श किया जाता। किसानों का तर्क कैसे सही नहीं है कि उन पर जबर्दस्ती थोपा गया ऐसा कुछ उन्हें स्वीकार नहीं, जिसके साथ उनके भविष्य की आशंकाएं जुड़ी हैं? वस्तुस्थिति को लेकर किसान चिंतित है। इसके पीछे की मंशा और भावी परिणामों को वह बहुत स्पष्ट रूप में समझता है, इसे लेकर किसी भ्रम में नहीं रहना चाहिए। सच्चाई यह है कि दिनोंदिन विस्तार लेता हुआ यह आंदोलन एक प्रतिक्रिया है, लोकतंत्र में इसकी व्यवस्था है और होनी भी चाहिए।
’शोभना विज, पटियाला, पंजाब</p>