देश में पुलिस तंत्र की स्थापना औपनिवेशिक समय में कानून-व्यवस्था कायम रखने के लिए की गई थी। भले ही अंग्रेजों का मूल मंतव्य भारतीय नागरिकों को दबाए रखने का रहा हो पर आज भी सामाजिक सुरक्षा और जनजीवन को भयमुक्त तथा सुचारू रूप से चलाना पुलिस तंत्र का विशुद्ध कर्तव्य है। इस क्षेत्र में पुलिस को पर्याप्त लिखित और व्यावहारिक अधिकार भी प्राप्त हैं। भारत के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक विकास, बढ़ती जनसंख्या, प्रौद्योगिकी का विकास, अपराधियों का सफेद कॉलर होना आदि तमाम परिस्थितियों के कारण पुलिस तंत्र की जवाबदेही के साथ जिम्मेदारी भी बढ़ी है।

भारतीय समाज में पुलिस की तानाशाहीपूर्ण छवि, जनता के साथ मित्रवत न होना और अपने अधिकारों के दुरुपयोग के कारण वह आरोपों से सदैव घिरती रही है। पुलिस तंत्र के पुनर्गठन में सत्ता शासकों की कतई कोई रुचि नहीं दिखती। आज स्थिति यह है कि पुलिस बल समाज के तथाकथित ठेकेदारों, नेताओं और सत्ता की कठपुतली बन गया है। समाज का दबा-कुचला वर्ग तो पुलिस के पास जाने से भी डरता है, पुलिस को तमाम बुराइयों और कुरीतियों ने घेर लिया है। पुलिस में सामान्यतया भ्रष्टाचार और अपराधीकरण के कई मामले हमारे सामने आते रहते हैं। चूंकि पुलिस के पास नागरिक-समाज से दूरियां और उसपर प्रभाव बनाए रखने की तमाम व्यावहारिक शक्तियां हैं लिहाजा, साधारण वर्ग अपनी आवाज उठाने की हिम्मत नहीं कर पाता और यदि वह साहस जुटाता भी है तो उसके भयावह परिणाम भी उसे भोगने पड़ते हैं।

कार्यपालिका और न्यायपालिका उसकी कोई मदद नहीं कर पातीें क्योंकि उनका आधार तो पुलिस पर ही टिका होता है। ऐसे में सामान्य व्यक्ति को न्याय मिलना बहुत दूर की संभावना ही कही जाएगी। चौथा खंभा कहलाने वाला मीडिया भी अंतत: राजनीति के दलदल और मुनाफा कमाने के औजार के रूप में तब्दील हो चुका है। अब वह भी सामान्य व्यक्ति के दुख-दर्द का साझीदार नहीं है। ऐसी स्थिति में समाज के पास एक सशक्त आंदोलन करने के अलावा कोई और विकल्प शेष नहीं बचता है। देश में कानून-व्यवस्था की स्थितियां दिन पर दिन बिगड़ती जा रही हैं इसलिए अब संवेदनशील व्यक्तियों को सड़कों पर उतरना ही होगा।
’शैलेंद्र चौहान, प्रतापनगर, जयपुर</p>