तवलीन सिंह ने ‘पिंड छुड़ाना होगा समाजवादी नीतियों से’ (23 नवंबर) टिप्पणी में समाजवादी नीतियों को कोसते हुए सफेद झूठ को परोसने का काम किया है। भारत में समाजवादी नीतियां लागू ही कब हुर्इं जिनसे पिंड छुड़ाने की वे बात कर रही हैं? अब तक के शासक दलों का आधा-अधूरा सोच और उसका अनुपालन, जिसे वे वामपंथी सोच ठहरा रही हैं, सच्चाई से कोसों दूर है। इस देश में वामपंथी शासन तो रहा ही नहीं, बल्कि जनांदोलनों और तात्कालिक राजनीतिक परिस्थितियों से कभी-कभार ही ऐसे अवसर बने जब जनहित के कानून और नीतियां बन सकीं लेकिन अमल में अनिच्छा के चलते वे कभी मूर्तरूप में ले सकीं।
आज भी हमारे संविधान में धर्मनिरपेक्ष या समाजवादी शब्द भले दिख रहे हों, पर कारगर नीतिगत पहलों के अभाव में ये केवल दर्शनीय बन हुए हैं। जिस व्यवस्था की तवलीन सिंह वकालत कर रही हैं, उसमें तो ये अब दर्शनीय भी नहीं रहे। देश में जारी रहीं पूंजीवादी नीतियों को वे वामपंथियों के सोच से लिपटी होने के बहाने असल में नग्न पूंजीवादी नीतियों पर पर्दा डाल रही हैं। जिस अमेरिका और पश्चिमी यूरोप की नकल पर वे भारतीय अर्थव्यवस्था को ले जाने की वकालत कर रही हैं, उसका असल रूप क्यों छुपा रही हैं?
विचारणीय यह भी है कि जिन विदेशी पूंजी मालिकों के लिए मोदी सरकार लाल जाजम बिछा रही है, उन्होंने देश और दुनिया को शोषण के सिवाय दिया क्या है? उदाहरण के तौर पर, विश्व के महज 2,11,275 बड़े धनिकों, जो विश्व आबादी के महज 0.004 फीसद हैं, के पास 30 ट्रिलियन डॉलर यानी 1850 लाख करोड़ रुपए की संपदा है। यह राशि अमेरिकी अर्थव्यवस्था, जो पंद्रह ट्रिलियन डॉलर की है, से दुगनी और यूरोप की अर्थव्यवस्था से आठ गुनी ज्यादा है। और थोड़ा गहराई में जाएं तो इसी अमेरिका में सबसे धनी मात्र चार सौ कुबेरों की कुल संपदा का मूल्य 2.29 ट्रिलियन डॉलर है। यह ब्राजील और हमारे देश के सकल घरेलू उत्पाद से अधिक है। कींसवादी अर्थशास्त्रीय सिद्धांतकारों के बाद की पीढ़ी के अर्थशास्त्रियों के जारी एक जनरल पर नजर डालें तो हम पाते हैं कि 2009 के बाद से अमेरिका के शीर्ष एक प्रतिशत अमीरों के पास ही पंचानबे प्रतिशत आबादी की संपदा केंद्रित हो गई है। इसे और थोड़ा आगे जाकर विश्लेषित करें तो पाएंगे कि शीर्ष दस प्रतिशत आबादी ने वर्ष 2009-2012 के बीच 116 प्रतिशत की दर से आय और संपदा अर्जित की है, जबकि निचली नब्बे प्रतिशत आबादी को नकारात्मक आय से गुजारा करना पड़ा है। रिपोर्टों के अनुसार अमेरिका में 2007 से मजदूरी सात प्रतिशत की दर से गिर रही है। आज वहां 1965 के बाद मजदूरी बढ़ोतरी की दर सबसे धीमी है। जिन ओबामा को मोदी अपना रोल मॉडल बनाना चाहते हैं, उन्होंने आमजन को दिया क्या है?
क्रेडिट सुइस द्वारा जारी ‘ग्लोबल वैल्थ’ रिपोर्ट के आईने में अमेरिका से आगे बढ़कर विश्व के पैमाने पर जाकर देखें तो भी पाएंगे कि दुनिया की एक प्रतिशत आबादी 48.2 प्रतिशत विश्व संपदा की मालिक है। विश्व के 8.6 प्रतिशत डॉलर वाले खरबपति दुनिया के पचासी प्रतिशत हिस्से को नियंत्रित करते हैं जबकि निचली सत्तर प्रतिशत आबादी, जिसकी व्यक्तिगत संपदा का मूल्य दस हजार डॉलर से भी कम है, के पास कुल मिलाकर मात्र 2.9 प्रतिशत विश्व संपदा है। जिस अर्थव्यवस्था का गुणगान किया जा रहा है, उस पर चलने वाले अमेरिका की स्थिति पर नजर डालें तो पाएंगे कि वहां की बड़ी आबादी बेरोजगारी और वंचना की शिकार है। अमेरिकी जनगणना के आंकड़ों के अनुसार शिशु गरीबी दर में उसके डेटराइट के 59 प्रतिशत और क्लेवलैंड के 54 प्रतिशत के बाद बफैलो और न्यूयार्क की दर 50.6 प्रतिशत आने के क्या मायने हैं? 2008 की मंदी में रोजगार खो चुके हर पांच में से एक व्यक्ति आज भी बेरोजगार है जबकि कंपनियों को भारी ‘बेल-आउट पैकेज’ दिए गए। भारत में गरीबों को मिल रही सब्सिडियों को खात्मे की ओर ले जाने की तरफ बढ़ते कदमों के साथ श्रमिकों को सुलभ कानूनी संरक्षण से बाहर करने के लिए लाए जा रहे श्रमिक कानूनों में बदलाव और कम मजदूरी में भी मालिक के आगे नाक रगड़ने के लिए बनाए जा रहे हालात के बीच देश में कौन कितना आगे जाएगा और कौन पीछे रह जाएगा, समझना कोई कठिन बात नहीं रह गई है।
’रामचंद्र शर्मा, तरुछाया नगर, जयपुर
फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए क्लिक करें- https://www.facebook.com/Jansatta
ट्विटर पेज पर फॉलो करने के लिए क्लिक करें- https://twitter.com/Jansatta