इसे विडंबना ही कहा जा सकता है कि पिछले दो दशकों के दौरान जब कभी भी हमने सीमा पार से शांति और मित्रता से भरपूर संकेतों या संदेशों की उम्मीद की है, घोर निराशा हाथ लगी है। हमें अपने शांति और मैत्री संदेशों के बदले करगिल घुसपैठ, मुंबई के हमले और अब पठानकोट एयरबेस पर आतंकी हमले की ‘सौगात’ मिली है। कह सकते हैं कि पाकिस्तान से बार-बार धोखा मिल रहा है। लेकिन शांति और मित्रता का रास्ता छोड़ कर शत्रुता और युद्ध का रास्ता अपनाने से भी दोनों देशों के आम नागरिकों को क्या हासिल होगा? दुनिया के उन देशों के हालात, खासकर वहां रह रहे बच्चों, महिलाओं की दशा पर पर नजर डालें जो लंबे समय से युद्धरत और हिंसाग्रस्त हैं। इसलिए शांति के मार्ग का विकल्प नहीं है और बहुत कठिन होने या बार-बार ठोकरें खाने के बावजूद इसे छोड़ना विवेक-सम्मत नहीं होगा।

आखिर ‘धोखा’ मिल क्यों/ किससे रहा है? क्या पाकिस्तान के आम नागरिकों से? प्रधानमंत्री नवाज शरीफ और उनके मत्रियों से, सेना/ आइएसआइ से? पाकिस्तान में रह/ पल रहे आतंकी समूहों से? सही उत्तर देना मुश्किल है, लेकिन इतना तय है कि सबका उत्तर ‘हां’ या ‘ना’ में नहीं हो सकता। यह एक कटु सत्य है कि दोनों देशों के अंदर ऐसे लोग बड़ी संख्या में हैं जो दूसरे देश को ‘दुश्मन नंबर 1’ मानते हैं और उनके मन में यह बात गहराई से बैठी हुई है। वैसे यह बात अजीब लगती है कि 1947 में भारत विभाजन से पहले हम दोनों एक थे, हमने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध इतने सालों तक मिलकर संघर्ष किया और बलिदान किए, हमारी साझी विरासत और आपस में रिश्ते-नाते हैं, लेकिन इसके बावजूद दोनों राष्ट्र परस्पर शत्रु हैं और एक-दूसरे को शक की नजर से ही देखते हैं।

दोनों पड़ोसी देशों को परस्पर जोड़ने वाली इतनी सारी कड़ियां होने के बावजूद क्या कारण हैं कि हमारे रिश्ते मधुर तो छोड़िए, सामान्य भी नहीं रह पाते? जो कारण समाज में दो व्यक्तियों/ परिवारों के आपसी संबंधों को बनाते-बिगाड़ते हैं क्या दो राष्ट्रों के आपसी संबंधों को भी वैसे ही कारक प्रभावित नहीं करते? इसलिए भारत और पाकिस्तान के बीच सभी मुद्दों पर खुलकर बातचीत होनी चाहिए और ‘इन मुद्दों पर बात करेंगे लेकिन इन पर बातचीत नहीं करेंगे’ की नीति पर पुनर्विचार की जरूरत है।
पठानकोट की घटना पर भारत सरकार ने संयम से प्रतिक्रिया दी जो उचित ही है। यह खबर भी आई है कि इस वारदात में पाकिस्तान के आतंकी गुटों का हाथ होने के सबूत देने के साथ ही जैश-ए-मुहम्मद के विरुद्ध 72 घंटे के भीतर कार्रवाई का पाकिस्तान को अल्टीमेटम दिया गया है, अन्यथा विदेश सचिव स्तर की प्रस्तावित वार्ता रद्द हो जाएगी।

यह सही है कि पाकिस्तान स्वयं आतंकवाद की मार झेल रहा है और पठानकोट हमले की पाकिस्तान सरकार ने कड़े शब्दों में निंदा भी की है। लेकिन यह भी सही है कि उसने आतंकवाद को पालने-पोसने में कोई कसर नहीं छोड़ी है और पिछले लंबे समय से भारत के विरुद्ध इसे हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया है। आतंक के विरुद्ध विश्व के सभी देश मिलकर कब लड़ेंगे? (कमल जोशी, अल्मोड़ा, उत्तराखंड)
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कांटे से कांटा
दो देशों के बीच घोषित युद्ध में यदि सैनिक वीरगति को प्राप्त होता है तो बात समझ में आती है क्योंकि देश-रक्षा के लिए अथवा स्वेच्छा से उसने सेना को चुना है। मगर अघोषित युद्ध में छल से हमारे सुरक्षा बलों के जांबाज जवान शहीद हों, यह देख कर मन मसोस कर रह जाना पड़ता है। पाकिस्तान अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रहा है और उसके द्वारा पोषित आतंकवाद आएदिन हमारे जवानों को निगल रहा है। लिहाजा, अब समय आ गया है जब कांटे को कांटे से निकाला जाना चाहिए। (शिबन कृष्ण रैणा, अलवर)
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अवैध से वैध
लोढ़ा समिति ने क्रिकेट में सट्टे को वैध करने की सिफारिश की है। इससे सट्टेबाजी को बढ़ावा मिलेगा और सरकार की आमदनी में वृद्धि भी होगी। पर क्या सरकार केवल अवैध को वैध करके आमदनी बढ़ाना चाहती है? शराब पीने की उत्तम व्यवस्था के लिए ‘बार’ के लाइसेंस दिए जाते हैं जबकि सरकार खुद ही ‘शराब को खराब’ कहती है। आखिर हम सरकारी तौर पर अवैध को ही वैध करके क्यों अपनी आमदनी या राजस्व बढ़ाना चाहते हैं?
सरकार का काम बुराइयों को खत्म करना होता है या कानून के जरिए उन्हें और बढ़ावा देने का? आखिर हमारी सरकार ऐसा करके देश और देशवासियों को कहां ले जाना चाहती है? वह थोड़ा देश हित में भी सोचे और अपनी कथनी और करनी में अंतर को पाटे। (महेश नेनावा, गिरधर नगर, इंदौर)
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परमाणु निरस्त्रीकरण
एटमी हथियारों की तरह रासायनिक हथियार भी मानवता के लिए खतरा हैं। भारत के सांसद अभिजीत बनर्जी ने संयुक्त राष्ट्र महासभा की ‘फर्स्ट कमेटी’ में सामूहिक विनाश के हथियारों पर बहस के दौरान रासायनिक हथियारों के उपयोग के खिलाफ भारत की प्रतिबद्धता का इजहार किया था। यों भारत के पास परमाणु हथियार हैं, पर वह परमाणु निरस्त्रीकरण का हिमायती रहा है। समस्या यह है कि इस बारे में बड़ी शक्तियों की दोरंगी नीति रही है। यही कारण है कि एनपीटी यानी परमाणु अप्रसार संधि कारगर साबित नहीं हो पाई है। इस संधि पर 1968 में हस्ताक्षर होने शुरू हुए और इसके दो साल बाद यह लागू की गई। यों यह एक ऐसी सामरिक संधि है जिस पर सबसे ज्यादा देशों ने हस्ताक्षर किए हैं, पर यह विषमता पर टिकी हुई है। इस संधि ने अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, रूस और चीन को परमाणु-शक्ति का दर्जा दे रखा है, जो संयुक्त राष्ट्र के स्थायी सदस्य भी हैं। इनके पास मौजूद एटमी हथियारों की सम्मिलित संख्या हजारों में होगी। संधि की निगाह में इनके पास परमाणु हथियार होना आपत्तिजनक नहीं है और दूसरी तरफ यह संधि बाकी दुनिया से परमाणु अप्रसार की उम्मीद करती है। भेदभावपूर्ण होने के कारण ही भारत ने इस संधि पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं। एनपीटी के तहत विशेष दर्जा पाए देश इस संधि पर हस्ताक्षर करने को ही दुनिया को एटमी खतरे से बचाने की कवायद के रूप में देखते हैं। जबकि जरूरत परमाणु निरस्त्रीकरण की है। (हिमांशु गोस्वामी, प्रीत विहार, बुलंदशहर)